Tuesday, January 22, 2008

पिन बहुत सारे

जिंदगी का अर्थ

मरना हो गया है

और जीने के लिये हैं

दिन बहुत सारे ।


इस

समय की मेज़ पर

रक्खी हुई

जिंदगी है 'पिन-कुशन' जैसी

दोस्ती का अर्थ

चुभना हो गया है

और चुभने के लिए हैं

पिन बहुत सारे।


निम्न-मध्यमवर्ग के

परिवार की

अल्पमासिक आय-सी

है जिंदगी

वेतनों का अर्थ

चुकना हो गया है

और चुकने के लिए हैं

ऋण बहुत सारे।


डॉ० कुँअर बेचैन

Thursday, January 17, 2008

मौत तो आनी है तो फिर मौत का क्यों डर रखूँ

मौत तो आनी है तो फिर मौत का क्यों डर रखूँ
जिंदगी आ, तेरे क़दमों पर मैं अपना सर रखूँ

जिसमें माँ और बाप की सेवा का शुभ संकल्प हो
चाहता हूँ मैं भी काँधे पर वही काँवर रखूँ

हाँ, मुझे उड़ना है लेकिन इसका मतलब यह नहीं
अपने सच्चे बाज़ुओं में इसके-उसके पर रखूँ

आज कैसे इम्तहाँ में उसने डाला है है मुझे
हुक्म यह देकर कि अपना धड़ रखूँ या सर रखूँ

कौन जाने कब बुलावा आए और जाना पड़े
सोचता हूँ हर घड़ी तैयार अब बिस्तर रखूँ

ऐसा कहना हो गया है मेरी आदत में शुमार
काम वो तो कर लिया है काम ये भी कर रख रखूँ

खेल भी चलता रहे और बात भी होती रहे
तुम सवालों को रखो मैं सामने उत्तर रखूँ

डॉ० कुँअर बेचैन

Wednesday, January 16, 2008

जिसे बनाया वृद्ध पिता के श्रमजल ने

जिसे बनाया वृद्ध पिता के श्रमजल ने
दादी की हँसुली ने, माँ की पायल ने
उस सच्चे घर की कच्ची दीवारों पर
मेरी टाई टँगने से कतराती है।

माँ को और पिता को यह कच्चा घर भी
एक बड़ी अनुभूति, मुझे केवल घटना
यह अंतर ही संबंधों की गलियों में
ला देता है कोई निर्मम दुर्घटना

जिन्हें रँगा जलते दीपक के काजल ने
बूढ़ी गागर से छलके गंगाजल ने
उन दीवारों पर टँगने से पहले ही
पत्नी के कर से साड़ी गिर जाती है।

जब से युग की चकाचौंध के कुहरे ने
छीनी है आँगन से नित्य दिया-बाती
तबसे लिपे आँगनों से, दीवारों से
बंद नाक को सोंधी गंध नहीं आती

जिसे चिना था घुटनों तक की दलदल ने
सने-पुते-झीने ममता के आँचल ने
पुस्तक के पन्नों में पिची हुई राखी
उस घर को घर कहने में शरमाती है।

साड़ी-टाई बदलें, या ये घर बदलें
प्रश्नचिह्न नित और बड़ा होता जाता
कारण केवल यही, दिखावों से जुड़ हम
तोड़ रहे अनुभूति, भावना से नाता

जिन्हें दिया संगीत द्वार की साँकल ने
खाँसी के ठनके, चूड़ी की हलचल ने
उन संकेतों वाले भावुक घूँघट पर
दरवाज़े की ' कॉल वैल ' हँस जाती है।

डॉ० कुँअर बेचैन