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दिन सरौता
हम सुपारी-से।
हम सुपारी-से।
ज़िंदगी-है तश्तरी का पान
काल-घर जाता हुआ मेहमान
चार कंधों की
सवारी-से।
जन्म-अंकुर में बदलता बीज़
मृत्यु है कोई ख़रीदी चीज़
साँस वाली
रेजगारी-से।
बचपना-ज्यों सूर, कवि रसखान
है बुढ़ापा-रहिमना का ग्यान
दिन जवानी के
बिहारी-से।
डॉ० कुँअर बेचैन
6 comments:
बहुत सुन्दर सामन्जस्य स्थापित किया है!! आनन्द आया.
साहित्य के उम्दा दखलकार और हस्ताक्षर श्री कुंवर साहिब को मेरा सादर प्रणाम,
पहली बार आपको पढ़ रहा हूँ हालाकि आपके बारे में तो न जाने कितनी बार सूना मगर पढने का मौका आज मिल रहा और इसबात से गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ .... इस बेहतरीन कविता का स्वाद चखा मैंने .....और आपका मुरीद हो गया .......आपकी ग़ज़लों को पढ़ना चाहता हूँ मगर उपलब्धता नहीं होने से नहीं पढ़ सका...कभी मेरे ब्लॉग पे आये आपका हार्दिक स्वागत है ....
आपका
अर्श
बहुत ही अच्छी रचना है ..............सच भी.......
ज़िंदगी-है तश्तरी का पान
काल-घर जाता हुआ मेहमान
चार कंधों की
सवारी-से।
एक -एक शब्द जैसे प्रतीकों की चाशनी में पगा शाश्वत यथार्थ ,डॉ.कुंवर बेचैन को ब्लॉग पर पढना सुखद है ,धन्यवाद भावना जी .
nice
दिन सरौता, हम सुपारी, . .ज़िन्दगी है पान ... सांस वाली रेजगारी, . . .आहा! क्या बिम्ब हैं.
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