Sunday, January 11, 2009

चेतना उपेक्षित है...

कैसी विडंबना है
जिस दिन ठिठुर रही थी
कुहरे-भरी नदी, माँ की उदास काया।
लानी थी गर्म चादर; मैं मेज़पोश लाया।

कैसा नशा चढ़ा है
यह आज़ टाइयों पर
आँखे तरेरती हैं
अपनी सुराहियों पर
मन से ना बाँध पाई रिश्तें गुलाब जैसे
ये राखियाँ बँधी हैं केवल कलाइयों पर

कैसी विडंबना है
जिस दिन मुझे पिता ने,
बैसाखियाँ हटाकर; बेटा कहा, बुलाया।
मैं अर्थ ढूँढ़ने को तब शब्दकोश लाया।

तहज़ीब की दवा को
जो रोग लग गया है
इंसान तक अभी तो
दो-चार डग गया है
जाने किसे-किसे यह अब राख में बदल दे
जो बर्फ़ को नदी में चंदन सुलग गया है

कैसी विडंबना है
इस सभ्यता-शिखर पर
मन में जमी बरफ़ ने इतना धुँआ उड़ाया।
लपटें न दी दिखाई; सारा शहर जलाया।

कुँअर बेचैन

Friday, January 2, 2009

जिस रोज़ से पछवा चली...

जिस रोज़ से

पछवा चली

आँधी खड़ी है गाँव में

उखड़े कलश, है कँपकँपी

इन मंदिरों के पाँव में।



जड़ से हिले बरगद कई

पीपल झुके, तुलसी झरी

पन्ने उड़े सद्ग्रंथ के

दीपक बुझे, बाती गिरी


मिट्टी हुआ

मीठा कुआँ

भटके सभी अँधियाव में

उखड़े कलश, है कँपकँपी

इन मंदिरों के पाँव में।


बँधकर कलावों में बनी

जो देवता, 'पीली डली'

वह भी हटी, सतिए मिटे

ओंधी पड़ी गंगाजली


किंरचें हुआ

तन शंख का

सीपी गिरी तालाब में

उखड़े कलश, है कँपकँपी

इन मंदिरों के पाँव में।

कुँअर बेचैन