Tuesday, March 31, 2009

चिट्ठी है किसी दुखी मन की...

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बर्तन की यह उठका-पटकी
यह बात-बात पर झल्लाना
चिट्ठी है किसी दुखी मन की।

यह थकी देह पर कर्मभार
इसको खाँसी, उसको बुखार
जितना वेतन, उतना उधार
नन्हें-मुन्नों को गुस्से में
हर बार, मारकार पछताना
चिट्ठी है किसी दुखी मन की।

इतने धंधे, यह क्षीणकाय-
ढोती ही रहती विवश हाय !
ख़ुद ही उलझन, खुद ही उपाय
आने पर किसी अतिथि जन के
दुख में भी सहसा हँस जाना
चिट्ठी है किसी दुखी मन की।
डॉ० कुअँर बेचैन

Friday, March 6, 2009

तुम्हारे हाथ में टँककर ...

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तुम्हारे हाथ में टँककर
बने हीरे, बने मोती
बटन, मेरी कमीज़ों के।

नयन को जागरण देतीं
नहायी देह की छुअनें
कभी भीगी हुईं अलकें
कभी ये चुंबनों के फूल
केसर-गंध-सी पलकें
सवेरे ही सपन झूले
बने ये सावनी लोचन
कई त्यौहार तीजों के।

बनी झंकार वीणा की
तुम्हारी चूड़ियों के हाथ में
यह चाय की प्याली
थकावट की चिलकती धूप को
दो नैन, हरियाली
तुम्हारी दृष्टियाँ छूकर
उभरने और ज्यादा लग गए
ये रंग चीज़ों के।
Dr.kunwar

Monday, March 2, 2009

लोहे ने कब कहा ...

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लोहे ने कब कहा
कि तुम गाना छोड़ो
तुम खुद ही जीवन की लय को भूल गए।


वह प्रहार सहकर भी
गाया करता है
सधी हुई लय में,
झंकारों के स्वर में
तुम प्रहार को
सहे बिना भी चिल्लाए
किया टूटने का अभिनय
दुनिया भर में


लोहे ने कब कहा
कि तुम रिश्ते तोड़ो
तुम्हीं टूटने तक धागों पर झूल गए।


हुई धूप में गर्म
शिशिर में शीतल भी
है संवेदनशीला
लोहे ही जड़ता
पर तुम जान-बूझ,
उन कमरों में बैठे
जिन पर ऋतु का
कोई असर नहीं पड़ता


लोहे ने कब कहा
इड़ा के सँग दौड़ो
यह तुम थे जो श्रद्धा के प्रतिकूल गए।
Dr.kunwar Bechain