Monday, August 6, 2007

कुछ काले कोट



कुछ काले कोट कचहरी के।

ये उतरें रोज अखाड़े
में
सिर से भी ऊँचे भाड़े
में
पूरे हैं नंगे झाड़े
में

ये कंठ लंगोट कचहरी
के।

बैठे रहते मौनी
साधे
गद्दी पै कानूनी
पाधे
पूरे में से उनके
आधे-

हैं आधे नोट कचहरी
के।

छलनी कर देते आँतों
को
अच्छे-अच्छों के दाँतों
को
तोड़े सब रिश्ते-नातों
को

ये हैं अखरोट कचहरी
के।

डॉ० कुँअर बेचैन

Friday, July 20, 2007

चल ततइया !



चल ततइया !


काट तन मोटी व्यवस्था का
जो धकेले जा रही है
देश का पइया !
चल ततइया !


छोड़ मीठा गुड़
तू वहाँ तक उड़


है जहाँ पर क़ैद पेटों में रुपइया !
चल ततइया !!

डंक कर पैना
चल बढ़ा सेना


थाम तुरही, छोड़कर मीठा पपइया !!
चल ततइया !!
डॉ० कुँअर बेचैन

Sunday, July 15, 2007

बेटियाँ

बेटियाँ-
शीतल हवाएँ हैं
जो पिता के घर बहुत दिन तक नहीं रहतीं
ये तरल जल की परातें हैं
लाज़ की उज़ली कनातें हैं
है पिता का घर हृदय-जैसा
ये हृदय की स्वच्छ बातें हैं
बेटियाँ-
पवन-ऋचाएँ हैं
बात जो दिल की, कभी खुलकर नहीं कहतीं
हैं चपलता तरल पारे की
और दृढता ध्रुव-सितारे की
कुछ दिनों इस पार हैं लेकिन
नाव हैं ये उस किनारे की
बेटियाँ-
ऐसी घटाएँ हैं
जो छलकती हैं, नदी बनकर नहीं बहतीं
Dr.Kunwar Bechain

गज़ल...


कोई रस्ता है न मंज़िल न तो घर है कोई
आप कहिएगा सफ़र ये भी सफ़र है कोई
'पास-बुक' पर तो नज़र है कि कहाँ रक्खी है
प्यार के ख़त का पता है न ख़बर है कोई
ठोकरें दे के तुझे उसने तो समझाया बहुत
एक ठोकर का भी क्या तुझपे असर है कोई
रात-दिन अपने इशारों पे नचाता है मुझे
मैंने देखा तो नहीं, मुझमें मगर है कोई
एक भी दिल में न उतरी, न कोई दोस्त बना
यार तू यह तो बता यह भी नज़र है कोई
प्यार से हाथ मिलाने से ही पुल बनते हैं
काट दो, काट दो गर दिल में भँवर है कोई
मौत दीवार है, दीवार के उस पार से अब
मुझको रह-रह के बुलाता है उधर है कोई
सारी दुनिया में लुटाता ही रहा प्यार अपना
कौन है, सुनते हैं, बेचैन 'कुँअर' है कोई

डॉ० कुँअर बेचैन

मध्मवर्गीय पत्नी से

हमारे मध्यमवर्गीय परिवारों में एक शब्द बड़ा ही महत्वपूर्ण होता है और वह है 'कल' सारे काम उसके कल पर ही टाले जाते हैं बच्चों की फीस जमा करनी है तो यही कहा जायेगा 'कल चली जायेगी' आटा पिसाकर लाना है तो कहा जायेगा 'कल जरूर पिस जायेगा' इस प्रकार मध्यमवर्गीय परिवारों में इस 'कल' शब्द का बहुत महत्व है मध्यमवर्गीय व्यक्ति चाहे घर में कुछ भी न हो मगर घर से बाहर बड़ा टिप टॉप होकर निकलना चाहता है इस गीत का पहला पद इसी बात पर आधारित है। दूसरी बात मध्यमवर्गीय व्यक्ति की ज़िंदगी में ये है कि वह घर से पूरी तरह जुड़ा रहकर भी घर में नहीं रह पाता क्योंकि उसे घर की जिम्मेदारियों के लिये घर से बाहर रहना पड़ता है कमायेगा नहीं तो खिलायेगा क्या? वो घर से बाहर रहकर ही घर बना सकता है उसकी इसी विडम्बना पर ये गीत आधारित है-






कल समय की व्यस्तताओं से निकालूँगा समय कुछ

फिर भरुँगा खुद तुम्हारी माँग में सिन्दूर

मुझको माफ़ करना

आज तो इस वक्त काफी देर ऑफिस को हुई है
हाँ जरा सुनना वो मेरी पेंट है न
वो फटी है जो अकेले पाँयचों पर
तुम जरा उसमें लगाकर चन्द टाँके

शर्ट के टूटे बटन भी टाँक देना
इस तरह से, जो नई हर कोई आँके
कल थमे वातावरण से, मैं निकालूँगा प्रलय कुछ
ले चलूँगा फिर तुम्हें इस भीड़ से भी दूर
मुझको माफ करना
आज तो इस वक्त काफी देर, ग्यारह पर सुई है
क्या कहा, है आज पप्पू का जन्मदिन
तुम सुनो, ये बात पप्पू से न कहना
और दिन भर तुम उसी के पास रहना
यदि करे तुमको परेशां, मारना मत
और हाँ, तुम भी कहीं मन हारना मत
कल पराजय के जलधि से, मैं निकालूँगा विजय कुछ
फिर मनायेंगे जन्मदिन की खुशी भरपूर
मुझको माफ करना
आज तो ये जेब भी मेरी फटेपन ने छुई है

डॉ० कुअँर बेचैन

नव-गीत

अधर-अधर को ढूँढ रही है
ये भोली मुस्कान
जैसे कोई महानगर में ढूँढे नया मकान

नयन-गेह से निकले आँसू
ऐसे डरे-डरे
भीड़ भरा चौराहा जैसे
कोई पार करे
मन है एक, हजारों जिसमें
बैठे हैं तूफान
जैसे एक कक्ष के घर में रुकें कई मेहमान

साँसों के पीछे बैठे हैं
नये-नये खतरे
जैसे लगें जेब के पीछे
कई जेब-कतरे

तन-मन में रहती है हरदम
कोई नयी थकान
जैसे रहे पिता के घर पर विधवा सुता जवान

डॉ० कुँअर बेचैन

डॉ० कुँअर बेचैन जी का गज़ल संग्रहः कोई आवाज़ देता है

ज़िंदगी यूँ भी जली, यूँ भी जली मीलों तक
चाँदनी चार क‍़दम, धूप चली मीलो तक

प्यार का गाँव अजब गाँव है जिसमें अक्सर
ख़त्म होती ही नहीं दुख की गली मीलों तक

प्यार में कैसी थकन कहके ये घर से निकली
कृष्ण की खोज में वृषभानु-लली मीलों तक

घर से निकला तो चली साथ में बिटिया की हँसी
ख़ुशबुएँ देती रही नन्हीं कली मीलों तक

माँ के आँचल से जो लिपटी तो घुमड़कर बरसी
मेरी पलकों में जो इक पीर पली मीलों तक

मैं हुआ चुप तो कोई और उधर बोल उठा
बात यह है कि तेरी बात चली मीलों तक

हम तुम्हारे हैं 'कुँअर' उसने कहा था इक दिन
मन में घुलती रही मिसरी की डली मीलों तक
डॉ० कुँअर बेचैन

डॉ० कुँअर बेचैन जी की ओर से सभी को दीपावली की शुभकामनायें


दूर तक जो दीखती हैं दीपमालाएं कुँअर
ये तिमिर के गेह में हैं ज्योति बालायें कुँअर
बातियों की बात सुन लें तो स्वयं खुल जायेंगी
सब के मन में प्रीत की शुभ पाठशालाएं कुँअर

डॉ० कुँअर बेचैन

एक गज़ल

अगर हम अपने दिल को अपना इक चाकर बना लेते
तो अपनी ज़िदंगी को और भी बेहतर बना लेते

ये काग़ज़ पर बनी चिड़िया भले ही उड़ नही पाती
मगर तुम कुछ तो उसके बाज़ुओं में पर बना लेते

अलग रहते हुए भी सबसे इतना दूर क्यों होते
अगर दिल में उठी दीवार में हम दर बना लेते

हमारा दिल जो नाज़ुक फूल था सबने मसल डाला
ज़माना कह रहा है दिल को हम पत्थर बना लेते

हम इतनी करके मेहनत शहर में फुटपाथ पर सोये
ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते

'कुँअर' कुछ लोग हैं जो अपने धड़ पर सर नहीं रखते
अगर झुकना नहीं होता तो वो भी सर बना लेते

डॉ० कुँअर बेचैन

गज़ल

सबकी बात न माना कर
खुद को भी पहचाना कर

दुनिया से लडना है तो
अपनी ओर निशाना कर

या तो मुझसे आकर मिल
या मुझको दीवाना कर

बारिश में औरों पर भी
अपनी छतरी ताना कर

बाहर दिल की बात न ला
दिल को भी तहखाना कर

शहरों में हलचल ही रख
मत इनको वीराना कर

डॉ० कुअँर बेचैन