Friday, April 11, 2008

दिन से लंबा ख़ालीपन


नींदें तो

रातों से लंबी

दिन से लंबा ख़ालीपन

अब क्या होगा मेरे मन?


मन की मीन

नयन की नौका

जब भी चाहे

बीती-अनबीती बातों में

डूबे-उतराए


निष्ठुर तट ने

तोड़ दिए हैं

बर्तुल लहरों के कंगन।

अब क्या होगा मेरे मन?


जितनी साँसें

रहन रखी थीं

भोले जीवन ने

एक-एक कर

छीनीं सारी

अश्रु-महाजन ने


लुटा हाट में

इस दुनिया की,

प्राणों का मधुमय कंचन।

अब क्या होगा मेरे मन।।

कुँअर बेचैन

5 comments:

नीरज गोस्वामी said...

कुंवर जी
शब्द और भाव का अद्भुत संगम है आप की रचना में. साधुवाद.
नीरज

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

गीत तो अच्छा है ही. आपको ब्लॉग पर देखना और अच्छा लगा.

पारुल "पुखराज" said...

बहुत आभार -बचपन मे सुनते थे आपको-अब ब्लाग पर पढ़कर बहुत खुशी होती है ।

रवीन्द्र प्रभात said...

आपको पढ़ना अच्छा लग रहा है , आपका आभार !

munnalal blogspot.com said...

आपकी कविता के संबंध में टिप्‍पणी करना कविता का कद घटाने जैसा है. इतना अवश्‍य कहूंगा ब्‍लाग पर आकर आपने ब्‍लॉगर का सम्‍मान बढ़ाया है. कविता और ब्‍लॉगर आगमन दोनों के लिए बधाई.