Thursday, February 7, 2008

रात कहाँ बीते

पेटों में अन्न नहीं भूख

साहस के होठ गए सूख

खेतों के कोश हुए रीते

जीवन की रात कहाँ बीते?


माटी के पाँव फटे

तरुवर के वस्त्र

छीन लिए सूखे ने

फ़सलों के शस्त्र

हाय भूख-डायन को

आज़ कौन जीते?


हड्डी की ठठरी में

उलझी है साँस

मुट्ठी भर भूख और

अंजलि भर प्यास

बीता हर दिन युग-सा

जीवन-विष पीते।


हृदयों के कार्यालय

आज हुए बंद

और न अब ड्यूटी का

तन ही पाबंद

साँसों की फा़इल पर

बँधे लाल फी़ते।

कुँअर बेचैन

4 comments:

अमिताभ मीत said...

मुट्ठी भर भूख ओर
अंजलि भर प्यास
आदरणीय, प्रणाम.

पारुल "पुखराज" said...

सदा ही नये भाव मिलते हैं यहां आ कर……आभार

ghughutibasuti said...

बहुत बढ़िया !
घुघूती बासूती

डॉ० कुअँर बेचैन said...

आप सबका धन्यवाद...