Sunday, April 30, 2023


    ग़ज़ल

     

    दिल पे मुश्किल है बहुत दिल की कहानी लिखना 
      जैसे बहते हुए पानी पै हो पानी लिखना 

          कोई उलझन ही रही होगी जो वो भूल गया 
            मेरे हिस्से में कोई शाम सुहानी लिखना 
               
                आते-जाते हुए मौसम से अलग रह के ज़रा 
                  अब के ख़त में तो कोई बात पुरानी लिखना 

                      कुछ भी लिखने का हुनर तुझको अगर मिल जाए 
                        इश्क़ को अश्कों के दरिया की रवानी लिखना 

                            इस इशारे को वो समझा तो मगर मुद्दत बाद 
                              अपने हर ख़त में उसे रात की रानी लिखना 
                                 
                                  डॉ० कुँअर बेचैन/ ख़ुशबू की लकीर 

                                  Tuesday, January 15, 2013

                                  DR.KUNWAR BECHAIN KA PARICHYA....

                                  DR.KUNWAR BECHAIN KA PARICHYA....


                                  Monday, October 25, 2010

                                  अब आग के लिबास को ज्यादा न दाबिए...

                                  अब आग के लिबास को ज्यादा न दाबिए।
                                  सुलगी हुई कपास को ज्यादा न दाबिए।


                                  ऐसा न हो कि उँगलियाँ घायल पड़ी मिलें
                                  चटके हुए गिलास को ज्यादा न दाबिए।

                                  चुभकर कहीं बना ही न दे घाव पाँव में
                                  पैरों तले की घास को ज्यादा न दाबिए।

                                  मुमकिन है खून आपके दामन पे जा लगे
                                  ज़ख़्मों के आस पास यों ज्यादा न दाबिए।

                                  पीने लगे न खून भी आँसू के साथ-साथ
                                  यों आदमी की प्यास को ज्यादा न दाबिए।

                                  Tuesday, August 3, 2010

                                  बंद होंठों में छुपा लो...

                                  बंद होंठों में छुपा लो
                                  ये हँसी के फूल
                                  वर्ना रो पड़ोगे।

                                  हैं हवा के पास
                                  अनगिन आरियाँ
                                  कटखने तूफान की
                                  तैयारियाँ
                                  कर न देना आँधियों को
                                  रोकने की भूल
                                  वर्ना रो पड़ोगे।

                                  हर नदी पर
                                  अब प्रलय के खेल हैं
                                  हर लहर के ढंग भी
                                  बेमेल हैं
                                  फेंक मत देना नदी पर
                                  निज व्यथा की धूल
                                  वर्ना रो पड़ोगे।

                                  बंद होंठों में छुपा लो
                                  ये हँसी के फूल
                                  वर्ना रो पड़ोगे।

                                  Kunwar

                                  Saturday, April 17, 2010

                                  वो लहरें कहाँ वो रवानी कहाँ है...

                                  वो लहरें कहाँ वो रवानी कहाँ है
                                  बता ज़िन्दगी ज़िन्दगानी कहाँ है

                                  ज़रा ढूँढिए इस धुँए के सफ़र में
                                  हमारी-तुम्हारी कहानी कहाँ है

                                  बड़ी देर से सोचते हैं कि आए
                                  मगर अब हमें नींद आनी कहाँ है

                                  बताएँ ज़रा उँगलियाँ पूछती हैं
                                  हमारी पुरानी निशानी कहाँ है

                                  फ़कीरी में है बादशाहत हमारी
                                  न यह पूछिए राजधानी कहाँ
                                  कुँअर


                                  Monday, April 12, 2010

                                  बड़ा उदास सफ़र है हमारे साथ रहो ..

                                  बड़ा उदास सफ़र है हमारे साथ रहो
                                  बस एक तुम पै नज़र है हमारे साथ रहो।

                                  हम आज एक भटकते हुए मुसाफ़िर हैं
                                  न कोई राह न घर है हमारे साथ रहो।

                                  तुम्हें ही छाँव समझकर यहाँ चले आए
                                  तुम्हारी गोद में सर है हमारे साथ रहो।

                                  कहीं भी हमको डुबा देगी ये पता है हमें
                                  हरेक साँस भँवर है हमारे साथ रहो।

                                  हर इक चिराग़ धुँए में घिरा-घिरा है 'कुँअर'
                                  बड़ा अजीब नगर है हमारे साथ रहो।

                                  'कुँअर'

                                  Sunday, February 28, 2010

                                  शुभकामनाएं

                                  जब से होली के मिले प्यार भरे ये रंग
                                  मन की चुनरी उड़ चली जैसे उड़े पतंग।


                                  लेकर आये साथ में रंगों का त्यौहार
                                  होली की शुभकामना करें आप स्वीकार।


                                  कुँअर बेचैन



                                  आप सभी को परिवार सहित होली की ढेर सारी शुभकामनाएं
                                  डॉ० कुँअर बेचैन

                                  Sunday, May 3, 2009

                                  सर्दियां १


                                  22
                                  छत हुई बातून वातायन मुखर हैं
                                  सर्दियाँ हैं।

                                  एक तुतला शोर
                                  सड़कें कूटता है
                                  हर गली का मौन
                                  क्रमशः टूटता है
                                  बालकों के खेल घर से बेख़बर हैं
                                  सर्दियाँ हैं।

                                  दोपहर भी
                                  श्वेत स्वेटर बुन रही है
                                  बहू बुड्ढी सास का दुःख
                                  सुन रही है
                                  बात उनकी और है जो हमउमर हैं
                                  सर्दियाँ हैं।

                                  चाँदनी रातें
                                  बरफ़ की सिल्लियाँ हैं
                                  ये सुबह, ये शाम
                                  भीगी बिल्लियाँ हैं
                                  साहब दफ़्तर में नहीं हैं आज घर हैं
                                  सर्दियाँ हैं।

                                  डॉ० कुँअर बेचैन

                                  Thursday, April 16, 2009

                                  हम सुपारी-से

                                  21
                                  दिन सरौता
                                  हम सुपारी-से।

                                  ज़िंदगी-है तश्तरी का पान
                                  काल-घर जाता हुआ मेहमान
                                  चार कंधों की
                                  सवारी-से।

                                  जन्म-अंकुर में बदलता बीज़
                                  मृत्यु है कोई ख़रीदी चीज़
                                  साँस वाली
                                  रेजगारी-से।

                                  बचपना-ज्यों सूर, कवि रसखान
                                  है बुढ़ापा-रहिमना का ग्यान
                                  दिन जवानी के
                                  बिहारी-से।
                                  डॉ० कुँअर बेचैन

                                  Monday, April 6, 2009

                                  शोकपत्र के ऊपर

                                  20
                                  ऊपर-ऊपर मुस्कानें हैं
                                  भीतर-भीतर ग़म
                                  जैसे शोकपत्र के ऊपर शादी का अलबम।
                                  समय-मछेरे के हाथों का
                                  थैला है जीवन
                                  जिसमें जिंदा मछली जैसा
                                  उछल रहा है मन
                                  भीतर-भीतर कई मरण हैं
                                  ऊपर कई जनम
                                  जैसे शोकपत्र के ऊपर शादी का अलबम।
                                  अपना-अपना दृष्टिकोण है
                                  अपना-अपना मत
                                  लेकिन मेरे मत में हम सब
                                  बिना पते के ख़त
                                  लिखा हुआ है जहाँ
                                  सुघर शब्दों में दुख का क्रम
                                  जैसे शोकपत्र के ऊपर शादी का अलबम।
                                  डॉ० कुअँर बेचैन

                                  Tuesday, March 31, 2009

                                  चिट्ठी है किसी दुखी मन की...

                                  19
                                  बर्तन की यह उठका-पटकी
                                  यह बात-बात पर झल्लाना
                                  चिट्ठी है किसी दुखी मन की।

                                  यह थकी देह पर कर्मभार
                                  इसको खाँसी, उसको बुखार
                                  जितना वेतन, उतना उधार
                                  नन्हें-मुन्नों को गुस्से में
                                  हर बार, मारकार पछताना
                                  चिट्ठी है किसी दुखी मन की।

                                  इतने धंधे, यह क्षीणकाय-
                                  ढोती ही रहती विवश हाय !
                                  ख़ुद ही उलझन, खुद ही उपाय
                                  आने पर किसी अतिथि जन के
                                  दुख में भी सहसा हँस जाना
                                  चिट्ठी है किसी दुखी मन की।
                                  डॉ० कुअँर बेचैन

                                  Friday, March 6, 2009

                                  तुम्हारे हाथ में टँककर ...

                                  18
                                  तुम्हारे हाथ में टँककर
                                  बने हीरे, बने मोती
                                  बटन, मेरी कमीज़ों के।

                                  नयन को जागरण देतीं
                                  नहायी देह की छुअनें
                                  कभी भीगी हुईं अलकें
                                  कभी ये चुंबनों के फूल
                                  केसर-गंध-सी पलकें
                                  सवेरे ही सपन झूले
                                  बने ये सावनी लोचन
                                  कई त्यौहार तीजों के।

                                  बनी झंकार वीणा की
                                  तुम्हारी चूड़ियों के हाथ में
                                  यह चाय की प्याली
                                  थकावट की चिलकती धूप को
                                  दो नैन, हरियाली
                                  तुम्हारी दृष्टियाँ छूकर
                                  उभरने और ज्यादा लग गए
                                  ये रंग चीज़ों के।
                                  Dr.kunwar

                                  Monday, March 2, 2009

                                  लोहे ने कब कहा ...

                                  17
                                  लोहे ने कब कहा
                                  कि तुम गाना छोड़ो
                                  तुम खुद ही जीवन की लय को भूल गए।


                                  वह प्रहार सहकर भी
                                  गाया करता है
                                  सधी हुई लय में,
                                  झंकारों के स्वर में
                                  तुम प्रहार को
                                  सहे बिना भी चिल्लाए
                                  किया टूटने का अभिनय
                                  दुनिया भर में


                                  लोहे ने कब कहा
                                  कि तुम रिश्ते तोड़ो
                                  तुम्हीं टूटने तक धागों पर झूल गए।


                                  हुई धूप में गर्म
                                  शिशिर में शीतल भी
                                  है संवेदनशीला
                                  लोहे ही जड़ता
                                  पर तुम जान-बूझ,
                                  उन कमरों में बैठे
                                  जिन पर ऋतु का
                                  कोई असर नहीं पड़ता


                                  लोहे ने कब कहा
                                  इड़ा के सँग दौड़ो
                                  यह तुम थे जो श्रद्धा के प्रतिकूल गए।
                                  Dr.kunwar Bechain

                                  Wednesday, February 18, 2009

                                  मन रीझ न यों...

                                  मन !
                                  अपनी कुहनी नहीं टिका
                                  उन संबंधों के शूलों पर
                                  जिनकी गलबहियों से तेरे
                                  मानवपन का दम घुटता हो।
                                  जो आए और छील जाए
                                  कोमल मूरत मृदु भावों की
                                  तेरी गठरी को दे बैठे
                                  बस एक दिशा बिखरावों की

                                  मन !
                                  बाँध न अपनी हर नौका
                                  ऐसी तरंग के कूलों पर
                                  बस सिर्फ़ ढहाने की ख़ातिर
                                  जिसका पग तट तक उठता हो।

                                  जो तेरी सही नज़र पर भी
                                  टूटा चश्मा पहना जाए
                                  तेरे गीतों की धारा को
                                  मरुथल का रेत बना जाए
                                  मन !
                                  रीझ न यों निर्गंध-बुझे
                                  उस सन्नाटे के फूलों पर
                                  जिनकी छुअनों से दृष्टि जले,
                                  भावुक मीठापन लुटता हो।

                                  कुँअर बेचैन


                                  Sunday, January 11, 2009

                                  चेतना उपेक्षित है...

                                  कैसी विडंबना है
                                  जिस दिन ठिठुर रही थी
                                  कुहरे-भरी नदी, माँ की उदास काया।
                                  लानी थी गर्म चादर; मैं मेज़पोश लाया।

                                  कैसा नशा चढ़ा है
                                  यह आज़ टाइयों पर
                                  आँखे तरेरती हैं
                                  अपनी सुराहियों पर
                                  मन से ना बाँध पाई रिश्तें गुलाब जैसे
                                  ये राखियाँ बँधी हैं केवल कलाइयों पर

                                  कैसी विडंबना है
                                  जिस दिन मुझे पिता ने,
                                  बैसाखियाँ हटाकर; बेटा कहा, बुलाया।
                                  मैं अर्थ ढूँढ़ने को तब शब्दकोश लाया।

                                  तहज़ीब की दवा को
                                  जो रोग लग गया है
                                  इंसान तक अभी तो
                                  दो-चार डग गया है
                                  जाने किसे-किसे यह अब राख में बदल दे
                                  जो बर्फ़ को नदी में चंदन सुलग गया है

                                  कैसी विडंबना है
                                  इस सभ्यता-शिखर पर
                                  मन में जमी बरफ़ ने इतना धुँआ उड़ाया।
                                  लपटें न दी दिखाई; सारा शहर जलाया।

                                  कुँअर बेचैन

                                  Friday, January 2, 2009

                                  जिस रोज़ से पछवा चली...

                                  जिस रोज़ से

                                  पछवा चली

                                  आँधी खड़ी है गाँव में

                                  उखड़े कलश, है कँपकँपी

                                  इन मंदिरों के पाँव में।



                                  जड़ से हिले बरगद कई

                                  पीपल झुके, तुलसी झरी

                                  पन्ने उड़े सद्ग्रंथ के

                                  दीपक बुझे, बाती गिरी


                                  मिट्टी हुआ

                                  मीठा कुआँ

                                  भटके सभी अँधियाव में

                                  उखड़े कलश, है कँपकँपी

                                  इन मंदिरों के पाँव में।


                                  बँधकर कलावों में बनी

                                  जो देवता, 'पीली डली'

                                  वह भी हटी, सतिए मिटे

                                  ओंधी पड़ी गंगाजली


                                  किंरचें हुआ

                                  तन शंख का

                                  सीपी गिरी तालाब में

                                  उखड़े कलश, है कँपकँपी

                                  इन मंदिरों के पाँव में।

                                  कुँअर बेचैन

                                  Wednesday, December 3, 2008

                                  आँगन की अल्पना सँभालिए...

                                  दरवाज़े तोड़-तोड़ कर

                                  घुस न जाएँ आँधियाँ मकान में,

                                  आँगन की अल्पना सँभालिए।


                                  आई कब आँधियाँ यहाँ

                                  बेमौसम शीतकाल में

                                  झागदार मेघ उग रहे

                                  नर्म धूप के उबाल में

                                  छत से फिर कूदे हैं अँधियारे

                                  चंद्रमुखी कल्पना सँभालिए।


                                  आँगन से कक्ष में चली

                                  शोरमुखी एक खलबली

                                  उपवन-सी आस्था हुई

                                  पहले से और जंगली

                                  दीवारों पर टँगी हुई

                                  पंखकटी प्रार्थना सँभालिए।
                                  कुँअर बेचैन

                                  Thursday, November 20, 2008

                                  रिश्तों को घर दिखलाओ...

                                  माँ की साँस

                                  पिता की खाँसी

                                  सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।


                                  छोड़ चेतना को

                                  जड़ता तक

                                  आना जीवन का

                                  पत्थर में परिवर्तित पानी

                                  मन के आँगन का-

                                  यात्रा तो है; किंतु सही अभियान नहीं।

                                  सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।


                                  संबंधों को

                                  पढ़ती है

                                  केवल व्यापारिकता

                                  बंद कोठरी से बोली

                                  शुभचिंतक भाव-लता-

                                  'रिश्तों को घर दिखलाओ, दूकान नहीं।'

                                  सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।
                                  कुँअर बेचैन

                                  Tuesday, November 11, 2008

                                  मीठापन जो लाया था मैं गाँव से...

                                  मीठापन जो लाया था मैं गाँव से
                                  कुछ दिन शहर रहा
                                  अब कड़वी ककड़ी है।

                                  तब तो नंगे पाँव धूप में ठंडे थे
                                  अब जूतों में रहकर भी जल जाते हैं
                                  तब आया करती थी महक पसीने से
                                  आज इत्र भी कपड़ों को छल जाते हैं
                                  मुक्त हँसी जो लाया था मैं गाँव से
                                  अब अनाम जंजीरों ने
                                  आ जकड़ी है।

                                  तालाबों में झाँक,सँवर जाते थे हम
                                  अब दर्पण भी हमको नहीं सजा पाते
                                  हाथों में लेकर जो फूल चले थे हम
                                  शहरों में आते ही बने बहीखाते
                                  नन्हा तिल जो लाया था मैं गाँव से
                                  चेहरे पर अब
                                  जाल-पूरती मकड़ी है।

                                  तब गाली भी लोकगीत-सी लगती थी
                                  अब यक़ीन भी धोखेबाज़ नज़र आया
                                  तब तो घूँघट तक का मौन समझते थे
                                  अब न शोर भी अपना अर्थ बता पाया
                                  सिंह-गर्जना लाया था मैं गाँव से
                                  अब वह केवल
                                  पात-चबाती बकरी है।
                                  कुँअर बेचैन

                                  Thursday, October 23, 2008

                                  वर्षा-दिनः एक ऑफ़िस

                                  जलती-बुझती रही

                                  दिवस के ऑफ़िस में बिज़ली।

                                  वर्षा थी,

                                  यों अपने घर से धूप नहीं निकली।


                                  सुबह-सुबह आवारा बादल गोली दाग़ गया

                                  सूरज का चपरासी डरकर

                                  घर को भाग गया

                                  गीले मेज़पोश वाली-

                                  भू-मेज़ रही इकली।

                                  वर्षा थी, यूँ अपने घर से धूप नहीं निकली।


                                  आज न आई आशुलेखिका कोई किरण-परी

                                  विहग-लिपिक ने

                                  आज न खोली पंखों की छतरी

                                  सी-सी करती पवन

                                  पिच गई स्यात् कहीं उँगली।

                                  वर्षा थी, यों अपने घर से धूप नहीं निकली।


                                  ख़ाली पड़ी सड़क की फ़ाइल कोई शब्द नहीं

                                  स्याही बहुत

                                  किंतु कोई लेखक उपलब्ध नहीं

                                  सिर्फ़ अकेलेपन की छाया

                                  कुर्सी से उछली।

                                  वर्षा थी, यों अपने घर से धूप नहीं निकली।
                                  कुँअर बेचैन

                                  Monday, October 20, 2008

                                  गोरी धूप चढ़ी

                                  (रात)
                                  जाते-जाते दिवस,
                                  रात की पुस्तक खोल गया।
                                  रात कि जिस पर
                                  सुबह-शाम की स्वर्णिम ज़िल्द चढ़ी
                                  गगन-ज्योतिषी ने
                                  तारों की भाषा ख़ूब पढ़ी
                                  आया तिमिर,
                                  शून्य के घट में स्याही घोल गया।

                                  (सुबह)

                                  देख भोर को
                                  नभ-आनन पर छाई फिर लाली
                                  पेड़ों पर बैठे पत्ते
                                  फिर बजा उठे ताली
                                  इतनी सारी-
                                  चिड़ियों वाला पिंजड़ा डोल गया।

                                  (दोपहर)
                                  ड्यूटी की पाबंद,
                                  देखकर अपनी भोर-घड़ी
                                  दिन के ऑफ़िस की
                                  सीढ़ी पर गोरी धूप चढ़ी
                                  सूरज- 'बॉस'
                                  शाम तक कुछ 'मैटर' बोल गया।

                                  (शाम)
                                  नभ के मेज़पोश पर
                                  जब स्याही-सी बिखरी
                                  शाम हुई
                                  ऑफिस की सीढी
                                  धूप-लली उतरी
                                  तम की भीड़
                                  धूप का स्वर्णिम कंगन मौल गया।
                                  कुँअर बेचैन

                                  Monday, October 13, 2008

                                  शाम

                                  संध्या के केशों में
                                  बँध गया
                                  'रिबन'
                                  -सूरज की लाली का।

                                  हँसुली-सा
                                  इंद्रघनुष
                                  बिंदिया-सा सूर्य
                                  मेघों की
                                  माला में
                                  ज्योतित वैदूर्य्य
                                  सतरंगे वेशों में
                                  बस गया
                                  बदन

                                  -फूलभरी डाली का।

                                  कुंडल-से
                                  झूम रहे
                                  क्षितिजों पर वृंत
                                  चूम रहा
                                  अधरों को
                                  मधुऋतु का कंत
                                  तन-मन के देशों को
                                  दे गया
                                  गगन
                                  -मौसम ख़ुशहाली का।

                                  कुँअर बेचैन

                                  Sunday, October 5, 2008

                                  सुबह

                                  सोई खिड़कियों को
                                  जगा गई
                                  नर्स-सी हवा।
                                  देकर मधुगंधिनी दवा।

                                  रोगी
                                  दरवाज़ों की
                                  बाजू में किरणों की घोंपकर सुई
                                  सूरज-चिकित्सक ने
                                  रख दी फिर
                                  धुली हुई धूप की रुई

                                  होने से
                                  बच गई
                                  चौखट विधवा।
                                  जगा गई नर्स-सी हवा।

                                  कुँअर बेचैन

                                  Wednesday, October 1, 2008

                                  पेड़ बबूलों के

                                  संघर्षों से बतियाने में

                                  उलझा था जब मेरा मन

                                  चला गया था आकर यौवन

                                  मुझको बिना बताए

                                  ज्यों अनपढ़ी प्रेम की पाती

                                  किसी नायिका के हाथों से

                                  आँधी में उड़ जाए।


                                  चलते रहे साँस के सँग-सँग


                                  पेड़ बबूलों के

                                  पड़े रहे अपने-अपने घर

                                  गजरे फूलों के

                                  कई गुत्थियाँ सुलझाने में


                                  उलझा था जब मेरा मन

                                  कई सुअवसर मेरे होते-होते हुए पराए

                                  जैसे नई प्रेमिका कोई

                                  प्रेमी के घर आते-आते

                                  गलियों में मुड़ जाए।


                                  झुकी-कमर की लाठी की भी


                                  कमर झुकी ऐसी

                                  अपने घर में घूम रही है

                                  बनकर परदेसी

                                  दुख-दर्दों को समझाने में

                                  उलझा था जब मेरा मन

                                  कई सफलताओं के घर से पाँव लौटकर आए

                                  जैसे कोई तीर्थयात्री

                                  संगम पर कुछ दिन रहकर भी

                                  लौटे बिना नहाए।

                                  कुँअर बेचैन

                                  Wednesday, June 18, 2008

                                  अँधेरी खाइयों के बीच

                                  दुखों की स्याहियों के बीच

                                  अपनी ज़िंदगी ऐसी

                                  कि जैसे सोख़्ता हो।


                                  जनम से मृत्यु तक की

                                  यह सड़क लंबी

                                  भरी है धूल से ही

                                  यहाँ हर साँस की दुलहिन

                                  बिंधी है शूल से ही

                                  अँधेरी खाइयों के बीच

                                  अपनी ज़िंदगी ऐसी

                                  कि ज्यों ख़त लापता हो।


                                  हमारा हर दिवस रोटी

                                  जिसे भूखे क्षणों ने

                                  खा लिया है

                                  हमारी रात है थिगड़ी

                                  जिसे बूढ़ी अमावस ने सिया है

                                  घनी अमराइयों के बीच

                                  अपनी ज़िंदगी,

                                  जैसे कि पतझर की लता हो।


                                  हमारी उम्र है स्वेटर

                                  जिसे दुख की

                                  सलाई ने बुना है

                                  हमारा दर्द है धागा

                                  जिसे हर प्रीतिबाला ने चुना है

                                  कई शहनाइयों के बीच

                                  अपनी ज़िंदगी

                                  जैसे अभागिन की चिता हो।

                                  डॉ० कुँअर बेचैन

                                  Friday, April 11, 2008

                                  दिन से लंबा ख़ालीपन


                                  नींदें तो

                                  रातों से लंबी

                                  दिन से लंबा ख़ालीपन

                                  अब क्या होगा मेरे मन?


                                  मन की मीन

                                  नयन की नौका

                                  जब भी चाहे

                                  बीती-अनबीती बातों में

                                  डूबे-उतराए


                                  निष्ठुर तट ने

                                  तोड़ दिए हैं

                                  बर्तुल लहरों के कंगन।

                                  अब क्या होगा मेरे मन?


                                  जितनी साँसें

                                  रहन रखी थीं

                                  भोले जीवन ने

                                  एक-एक कर

                                  छीनीं सारी

                                  अश्रु-महाजन ने


                                  लुटा हाट में

                                  इस दुनिया की,

                                  प्राणों का मधुमय कंचन।

                                  अब क्या होगा मेरे मन।।

                                  कुँअर बेचैन

                                  Friday, March 14, 2008

                                  चीज़े बोलती हैं

                                  अगर तुम एक पल भी

                                  ध्यान देकर सुन सको तो,

                                  तुम्हें मालूम यह होगा

                                  कि चीजें बोलती हैं।


                                  तुम्हारे कक्ष की तस्वीर

                                  तुमसे कह रही है

                                  बहुत दिन हो गए तुमने मुझे देखा नहीं है

                                  तुम्हारे द्वार पर यूँ ही पड़े

                                  मासूम ख़त पर

                                  तुम्हारे चुंबनों की एक भी रेखा नहीं है


                                  अगर तुम बंद पलकों में

                                  सपन कुछ बुन सको तो

                                  तुम्हें मालूम यह होगा

                                  कि वे दृग खोलती हैं।


                                  वो रामायण

                                  कि जिसकी ज़िल्द पर जाले पुरे हैं

                                  तुम्हें ममता-भरे स्वर में अभी भी टेरती है।

                                  वो खूँटी पर टँगे

                                  जर्जर पुराने कोट की छवि

                                  तुम्हें अब भी बड़ी मीठी नज़र से हेरती है।


                                  अगर तुम भाव की कलियाँ

                                  हृदय से चुन सको तो

                                  तुम्हें मालूम यह होगा

                                  कि वे मधु घोलती हैं।

                                  कुँअर बेचैन

                                  Thursday, February 14, 2008

                                  बीजगणित-सी शाम

                                  अंकगणित-सी सुबह है मेरी

                                  बीजगणित-सी शाम

                                  रेखाओं में खिंची हुई है

                                  मेरी उम्र तमाम।


                                  भोर-किरण ने दिया गुणनफल

                                  दुख का, सुख का भाग

                                  जोड़ दिए आहों में आँसू

                                  घटा प्रीत का फाग

                                  प्रश्नचिह्न ही मिले सदा से

                                  मिला न पूर्ण विराम।


                                  जन्म-मरण के 'ब्रैकिट' में

                                  यह हुई ज़िंदगी क़ैद

                                  ब्रैकिट के ही साथ खुल गए

                                  इस जीवन के भेद

                                  नफ़ी-नफ़ी सब जमा हो रहे

                                  आँसू आठों याम।


                                  आँसू, आह, अभावों की ही

                                  ये रेखाएँ तीन

                                  खींच रही हैं त्रिभुज ज़िंदगी का

                                  होकर ग़मगीन

                                  अब तक तो ऐसे बीती है

                                  आगे जाने राम।

                                  कुँअर बेचैन

                                  Thursday, February 7, 2008

                                  रात कहाँ बीते

                                  पेटों में अन्न नहीं भूख

                                  साहस के होठ गए सूख

                                  खेतों के कोश हुए रीते

                                  जीवन की रात कहाँ बीते?


                                  माटी के पाँव फटे

                                  तरुवर के वस्त्र

                                  छीन लिए सूखे ने

                                  फ़सलों के शस्त्र

                                  हाय भूख-डायन को

                                  आज़ कौन जीते?


                                  हड्डी की ठठरी में

                                  उलझी है साँस

                                  मुट्ठी भर भूख और

                                  अंजलि भर प्यास

                                  बीता हर दिन युग-सा

                                  जीवन-विष पीते।


                                  हृदयों के कार्यालय

                                  आज हुए बंद

                                  और न अब ड्यूटी का

                                  तन ही पाबंद

                                  साँसों की फा़इल पर

                                  बँधे लाल फी़ते।

                                  कुँअर बेचैन


                                  पेटों में अन्न नहीं भूख

                                  साहस के होठ गए सूख

                                  खेतों के कोश हुए रीते

                                  जीवन की रात कहाँ बीते?


                                  माटी के पाँव फटे

                                  तरुवर के वस्त्र

                                  छीन लिए सूखे ने

                                  फ़सलों के शस्त्र

                                  हाय भूख-डायन को

                                  आज़ कौन जीते?


                                  हड्डी की ठठरी में

                                  उलझी है साँस

                                  मुट्ठी भर भूख और

                                  अंजलि भर प्यास

                                  बीता हर दिन युग-सा

                                  जीवन-विष पीते।


                                  हृदयों के कार्यालय

                                  आज हुए बंद

                                  और न अब ड्यूटी का

                                  तन ही पाबंद

                                  साँसों की फा़इल पर

                                  बँधे लाल फी़ते।

                                  कुँअर बेचैन

                                  Tuesday, January 22, 2008

                                  पिन बहुत सारे

                                  जिंदगी का अर्थ

                                  मरना हो गया है

                                  और जीने के लिये हैं

                                  दिन बहुत सारे ।


                                  इस

                                  समय की मेज़ पर

                                  रक्खी हुई

                                  जिंदगी है 'पिन-कुशन' जैसी

                                  दोस्ती का अर्थ

                                  चुभना हो गया है

                                  और चुभने के लिए हैं

                                  पिन बहुत सारे।


                                  निम्न-मध्यमवर्ग के

                                  परिवार की

                                  अल्पमासिक आय-सी

                                  है जिंदगी

                                  वेतनों का अर्थ

                                  चुकना हो गया है

                                  और चुकने के लिए हैं

                                  ऋण बहुत सारे।


                                  डॉ० कुँअर बेचैन

                                  Thursday, January 17, 2008

                                  मौत तो आनी है तो फिर मौत का क्यों डर रखूँ

                                  मौत तो आनी है तो फिर मौत का क्यों डर रखूँ
                                  जिंदगी आ, तेरे क़दमों पर मैं अपना सर रखूँ

                                  जिसमें माँ और बाप की सेवा का शुभ संकल्प हो
                                  चाहता हूँ मैं भी काँधे पर वही काँवर रखूँ

                                  हाँ, मुझे उड़ना है लेकिन इसका मतलब यह नहीं
                                  अपने सच्चे बाज़ुओं में इसके-उसके पर रखूँ

                                  आज कैसे इम्तहाँ में उसने डाला है है मुझे
                                  हुक्म यह देकर कि अपना धड़ रखूँ या सर रखूँ

                                  कौन जाने कब बुलावा आए और जाना पड़े
                                  सोचता हूँ हर घड़ी तैयार अब बिस्तर रखूँ

                                  ऐसा कहना हो गया है मेरी आदत में शुमार
                                  काम वो तो कर लिया है काम ये भी कर रख रखूँ

                                  खेल भी चलता रहे और बात भी होती रहे
                                  तुम सवालों को रखो मैं सामने उत्तर रखूँ

                                  डॉ० कुँअर बेचैन

                                  Wednesday, January 16, 2008

                                  जिसे बनाया वृद्ध पिता के श्रमजल ने

                                  जिसे बनाया वृद्ध पिता के श्रमजल ने
                                  दादी की हँसुली ने, माँ की पायल ने
                                  उस सच्चे घर की कच्ची दीवारों पर
                                  मेरी टाई टँगने से कतराती है।

                                  माँ को और पिता को यह कच्चा घर भी
                                  एक बड़ी अनुभूति, मुझे केवल घटना
                                  यह अंतर ही संबंधों की गलियों में
                                  ला देता है कोई निर्मम दुर्घटना

                                  जिन्हें रँगा जलते दीपक के काजल ने
                                  बूढ़ी गागर से छलके गंगाजल ने
                                  उन दीवारों पर टँगने से पहले ही
                                  पत्नी के कर से साड़ी गिर जाती है।

                                  जब से युग की चकाचौंध के कुहरे ने
                                  छीनी है आँगन से नित्य दिया-बाती
                                  तबसे लिपे आँगनों से, दीवारों से
                                  बंद नाक को सोंधी गंध नहीं आती

                                  जिसे चिना था घुटनों तक की दलदल ने
                                  सने-पुते-झीने ममता के आँचल ने
                                  पुस्तक के पन्नों में पिची हुई राखी
                                  उस घर को घर कहने में शरमाती है।

                                  साड़ी-टाई बदलें, या ये घर बदलें
                                  प्रश्नचिह्न नित और बड़ा होता जाता
                                  कारण केवल यही, दिखावों से जुड़ हम
                                  तोड़ रहे अनुभूति, भावना से नाता

                                  जिन्हें दिया संगीत द्वार की साँकल ने
                                  खाँसी के ठनके, चूड़ी की हलचल ने
                                  उन संकेतों वाले भावुक घूँघट पर
                                  दरवाज़े की ' कॉल वैल ' हँस जाती है।

                                  डॉ० कुँअर बेचैन

                                  Monday, August 6, 2007

                                  कुछ काले कोट



                                  कुछ काले कोट कचहरी के।

                                  ये उतरें रोज अखाड़े
                                  में
                                  सिर से भी ऊँचे भाड़े
                                  में
                                  पूरे हैं नंगे झाड़े
                                  में

                                  ये कंठ लंगोट कचहरी
                                  के।

                                  बैठे रहते मौनी
                                  साधे
                                  गद्दी पै कानूनी
                                  पाधे
                                  पूरे में से उनके
                                  आधे-

                                  हैं आधे नोट कचहरी
                                  के।

                                  छलनी कर देते आँतों
                                  को
                                  अच्छे-अच्छों के दाँतों
                                  को
                                  तोड़े सब रिश्ते-नातों
                                  को

                                  ये हैं अखरोट कचहरी
                                  के।

                                  डॉ० कुँअर बेचैन

                                  Friday, July 20, 2007

                                  चल ततइया !



                                  चल ततइया !


                                  काट तन मोटी व्यवस्था का
                                  जो धकेले जा रही है
                                  देश का पइया !
                                  चल ततइया !


                                  छोड़ मीठा गुड़
                                  तू वहाँ तक उड़


                                  है जहाँ पर क़ैद पेटों में रुपइया !
                                  चल ततइया !!

                                  डंक कर पैना
                                  चल बढ़ा सेना


                                  थाम तुरही, छोड़कर मीठा पपइया !!
                                  चल ततइया !!
                                  डॉ० कुँअर बेचैन

                                  Sunday, July 15, 2007

                                  बेटियाँ

                                  बेटियाँ-
                                  शीतल हवाएँ हैं
                                  जो पिता के घर बहुत दिन तक नहीं रहतीं
                                  ये तरल जल की परातें हैं
                                  लाज़ की उज़ली कनातें हैं
                                  है पिता का घर हृदय-जैसा
                                  ये हृदय की स्वच्छ बातें हैं
                                  बेटियाँ-
                                  पवन-ऋचाएँ हैं
                                  बात जो दिल की, कभी खुलकर नहीं कहतीं
                                  हैं चपलता तरल पारे की
                                  और दृढता ध्रुव-सितारे की
                                  कुछ दिनों इस पार हैं लेकिन
                                  नाव हैं ये उस किनारे की
                                  बेटियाँ-
                                  ऐसी घटाएँ हैं
                                  जो छलकती हैं, नदी बनकर नहीं बहतीं
                                  Dr.Kunwar Bechain

                                  गज़ल...


                                  कोई रस्ता है न मंज़िल न तो घर है कोई
                                  आप कहिएगा सफ़र ये भी सफ़र है कोई
                                  'पास-बुक' पर तो नज़र है कि कहाँ रक्खी है
                                  प्यार के ख़त का पता है न ख़बर है कोई
                                  ठोकरें दे के तुझे उसने तो समझाया बहुत
                                  एक ठोकर का भी क्या तुझपे असर है कोई
                                  रात-दिन अपने इशारों पे नचाता है मुझे
                                  मैंने देखा तो नहीं, मुझमें मगर है कोई
                                  एक भी दिल में न उतरी, न कोई दोस्त बना
                                  यार तू यह तो बता यह भी नज़र है कोई
                                  प्यार से हाथ मिलाने से ही पुल बनते हैं
                                  काट दो, काट दो गर दिल में भँवर है कोई
                                  मौत दीवार है, दीवार के उस पार से अब
                                  मुझको रह-रह के बुलाता है उधर है कोई
                                  सारी दुनिया में लुटाता ही रहा प्यार अपना
                                  कौन है, सुनते हैं, बेचैन 'कुँअर' है कोई

                                  डॉ० कुँअर बेचैन

                                  मध्मवर्गीय पत्नी से

                                  हमारे मध्यमवर्गीय परिवारों में एक शब्द बड़ा ही महत्वपूर्ण होता है और वह है 'कल' सारे काम उसके कल पर ही टाले जाते हैं बच्चों की फीस जमा करनी है तो यही कहा जायेगा 'कल चली जायेगी' आटा पिसाकर लाना है तो कहा जायेगा 'कल जरूर पिस जायेगा' इस प्रकार मध्यमवर्गीय परिवारों में इस 'कल' शब्द का बहुत महत्व है मध्यमवर्गीय व्यक्ति चाहे घर में कुछ भी न हो मगर घर से बाहर बड़ा टिप टॉप होकर निकलना चाहता है इस गीत का पहला पद इसी बात पर आधारित है। दूसरी बात मध्यमवर्गीय व्यक्ति की ज़िंदगी में ये है कि वह घर से पूरी तरह जुड़ा रहकर भी घर में नहीं रह पाता क्योंकि उसे घर की जिम्मेदारियों के लिये घर से बाहर रहना पड़ता है कमायेगा नहीं तो खिलायेगा क्या? वो घर से बाहर रहकर ही घर बना सकता है उसकी इसी विडम्बना पर ये गीत आधारित है-






                                  कल समय की व्यस्तताओं से निकालूँगा समय कुछ

                                  फिर भरुँगा खुद तुम्हारी माँग में सिन्दूर

                                  मुझको माफ़ करना

                                  आज तो इस वक्त काफी देर ऑफिस को हुई है
                                  हाँ जरा सुनना वो मेरी पेंट है न
                                  वो फटी है जो अकेले पाँयचों पर
                                  तुम जरा उसमें लगाकर चन्द टाँके

                                  शर्ट के टूटे बटन भी टाँक देना
                                  इस तरह से, जो नई हर कोई आँके
                                  कल थमे वातावरण से, मैं निकालूँगा प्रलय कुछ
                                  ले चलूँगा फिर तुम्हें इस भीड़ से भी दूर
                                  मुझको माफ करना
                                  आज तो इस वक्त काफी देर, ग्यारह पर सुई है
                                  क्या कहा, है आज पप्पू का जन्मदिन
                                  तुम सुनो, ये बात पप्पू से न कहना
                                  और दिन भर तुम उसी के पास रहना
                                  यदि करे तुमको परेशां, मारना मत
                                  और हाँ, तुम भी कहीं मन हारना मत
                                  कल पराजय के जलधि से, मैं निकालूँगा विजय कुछ
                                  फिर मनायेंगे जन्मदिन की खुशी भरपूर
                                  मुझको माफ करना
                                  आज तो ये जेब भी मेरी फटेपन ने छुई है

                                  डॉ० कुअँर बेचैन

                                  नव-गीत

                                  अधर-अधर को ढूँढ रही है
                                  ये भोली मुस्कान
                                  जैसे कोई महानगर में ढूँढे नया मकान

                                  नयन-गेह से निकले आँसू
                                  ऐसे डरे-डरे
                                  भीड़ भरा चौराहा जैसे
                                  कोई पार करे
                                  मन है एक, हजारों जिसमें
                                  बैठे हैं तूफान
                                  जैसे एक कक्ष के घर में रुकें कई मेहमान

                                  साँसों के पीछे बैठे हैं
                                  नये-नये खतरे
                                  जैसे लगें जेब के पीछे
                                  कई जेब-कतरे

                                  तन-मन में रहती है हरदम
                                  कोई नयी थकान
                                  जैसे रहे पिता के घर पर विधवा सुता जवान

                                  डॉ० कुँअर बेचैन

                                  डॉ० कुँअर बेचैन जी का गज़ल संग्रहः कोई आवाज़ देता है

                                  ज़िंदगी यूँ भी जली, यूँ भी जली मीलों तक
                                  चाँदनी चार क‍़दम, धूप चली मीलो तक

                                  प्यार का गाँव अजब गाँव है जिसमें अक्सर
                                  ख़त्म होती ही नहीं दुख की गली मीलों तक

                                  प्यार में कैसी थकन कहके ये घर से निकली
                                  कृष्ण की खोज में वृषभानु-लली मीलों तक

                                  घर से निकला तो चली साथ में बिटिया की हँसी
                                  ख़ुशबुएँ देती रही नन्हीं कली मीलों तक

                                  माँ के आँचल से जो लिपटी तो घुमड़कर बरसी
                                  मेरी पलकों में जो इक पीर पली मीलों तक

                                  मैं हुआ चुप तो कोई और उधर बोल उठा
                                  बात यह है कि तेरी बात चली मीलों तक

                                  हम तुम्हारे हैं 'कुँअर' उसने कहा था इक दिन
                                  मन में घुलती रही मिसरी की डली मीलों तक
                                  डॉ० कुँअर बेचैन

                                  डॉ० कुँअर बेचैन जी की ओर से सभी को दीपावली की शुभकामनायें


                                  दूर तक जो दीखती हैं दीपमालाएं कुँअर
                                  ये तिमिर के गेह में हैं ज्योति बालायें कुँअर
                                  बातियों की बात सुन लें तो स्वयं खुल जायेंगी
                                  सब के मन में प्रीत की शुभ पाठशालाएं कुँअर

                                  डॉ० कुँअर बेचैन

                                  एक गज़ल

                                  अगर हम अपने दिल को अपना इक चाकर बना लेते
                                  तो अपनी ज़िदंगी को और भी बेहतर बना लेते

                                  ये काग़ज़ पर बनी चिड़िया भले ही उड़ नही पाती
                                  मगर तुम कुछ तो उसके बाज़ुओं में पर बना लेते

                                  अलग रहते हुए भी सबसे इतना दूर क्यों होते
                                  अगर दिल में उठी दीवार में हम दर बना लेते

                                  हमारा दिल जो नाज़ुक फूल था सबने मसल डाला
                                  ज़माना कह रहा है दिल को हम पत्थर बना लेते

                                  हम इतनी करके मेहनत शहर में फुटपाथ पर सोये
                                  ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते

                                  'कुँअर' कुछ लोग हैं जो अपने धड़ पर सर नहीं रखते
                                  अगर झुकना नहीं होता तो वो भी सर बना लेते

                                  डॉ० कुँअर बेचैन

                                  गज़ल

                                  सबकी बात न माना कर
                                  खुद को भी पहचाना कर

                                  दुनिया से लडना है तो
                                  अपनी ओर निशाना कर

                                  या तो मुझसे आकर मिल
                                  या मुझको दीवाना कर

                                  बारिश में औरों पर भी
                                  अपनी छतरी ताना कर

                                  बाहर दिल की बात न ला
                                  दिल को भी तहखाना कर

                                  शहरों में हलचल ही रख
                                  मत इनको वीराना कर

                                  डॉ० कुअँर बेचैन