Wednesday, June 18, 2008

अँधेरी खाइयों के बीच

दुखों की स्याहियों के बीच

अपनी ज़िंदगी ऐसी

कि जैसे सोख़्ता हो।


जनम से मृत्यु तक की

यह सड़क लंबी

भरी है धूल से ही

यहाँ हर साँस की दुलहिन

बिंधी है शूल से ही

अँधेरी खाइयों के बीच

अपनी ज़िंदगी ऐसी

कि ज्यों ख़त लापता हो।


हमारा हर दिवस रोटी

जिसे भूखे क्षणों ने

खा लिया है

हमारी रात है थिगड़ी

जिसे बूढ़ी अमावस ने सिया है

घनी अमराइयों के बीच

अपनी ज़िंदगी,

जैसे कि पतझर की लता हो।


हमारी उम्र है स्वेटर

जिसे दुख की

सलाई ने बुना है

हमारा दर्द है धागा

जिसे हर प्रीतिबाला ने चुना है

कई शहनाइयों के बीच

अपनी ज़िंदगी

जैसे अभागिन की चिता हो।

डॉ० कुँअर बेचैन

8 comments:

Anonymous said...

bhut hi sundar rachana hai aapki. badhai ho.

Alpana Verma said...
This comment has been removed by the author.
Udan Tashtari said...

आनन्द आ गया. बहुत उम्दा रचना.

सादर
समीर लाल

नीरज गोस्वामी said...

कुंवर जी
अद्भुत रचना...बेमिसाल.
नीरज

नीरज गोस्वामी said...

कुंवर जी
अद्भुत रचना...बेमिसाल.
नीरज

डॉ० कुअँर बेचैन said...

आप सभी का शुक्रिया...

Dr. Ravindra S. Mann said...

Bahut dilkash rachnaa hai... andar tak chu gayi...

admin said...

बहुत प्यारी कविता है।
आपकी रचनाएं तो बचपन से पढता आ रहा हूं, पर आपके ब्लॉग पर पहली बार आया हूं।बहुत खुशी हो रही है।