Friday, March 6, 2009

तुम्हारे हाथ में टँककर ...

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तुम्हारे हाथ में टँककर
बने हीरे, बने मोती
बटन, मेरी कमीज़ों के।

नयन को जागरण देतीं
नहायी देह की छुअनें
कभी भीगी हुईं अलकें
कभी ये चुंबनों के फूल
केसर-गंध-सी पलकें
सवेरे ही सपन झूले
बने ये सावनी लोचन
कई त्यौहार तीजों के।

बनी झंकार वीणा की
तुम्हारी चूड़ियों के हाथ में
यह चाय की प्याली
थकावट की चिलकती धूप को
दो नैन, हरियाली
तुम्हारी दृष्टियाँ छूकर
उभरने और ज्यादा लग गए
ये रंग चीज़ों के।
Dr.kunwar

5 comments:

ghughutibasuti said...

बहुत सुन्दर !
घुघूती बासूती

Deepak Tiruwa said...

मज़ा आ गया...सुंदर...!

इरशाद अली said...

आदरणीय बैचेन जी को सादर नमस्कार,
ब्लागिंग की दुनिया में आपका स्वागत है। देर आए दुरस्त आए। आपके पीछे-पीछे और भाई-बन्धु भी आते होगे। मैं नही जानता आपका ब्लाॅग कौन चला रहा है लेकिन आप खुद ही ब्लाॅगिंग करे तो ये ज्यादा मजेदार बात रहेगी। जितना मजा हजारों श्रोताओं के बीच अपनी सबसे बेहतर कविता सुनाने पर मिलने वाली वाही-वाही से आता है, उससे कही ज्यादा बड़ा नशा और आनंद आज हिन्दी ब्लाॅगिंग में हैं। हिन्दी ब्लाॅगरों की संख्या 10 हजार से आगे निकल रही है। यहां हजारों कविता लिखने वाले मौजूद है। कमाल की बात तो ये है कि हर दूसरा ब्लाॅगर या तो कवि है या पत्रकार है। ऐसे में कुवंर बैचेन होना जरा राहत देता है। खैर हाल ही मैं अगर किसी कार्यक्रम में हम मिले तो जरूर बाते करेगे आपके ब्लाग पर।
बहुत-बहुत शुभकामनाओं के साथ
इरशाद

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर ...

Shardula said...

डा. साहब,
बहुत ही सुन्दर!
ये सोच रही हूँ कि आपने 'हाथ से' की बजाय 'हाथ में' क्यों लिखा?
"नयन को जागरण देतीं केसर-गंध-सी पलकें
बने ये सावनी लोचन
बनी झंकार वीणा की यह चाय की प्याली
थकावट की चिलकती धूप को दो नैन, हरियाली "
...ये बहुत ही अछूता सा !
सादर शार्दुला