Sunday, July 15, 2007

गज़ल

सबकी बात न माना कर
खुद को भी पहचाना कर

दुनिया से लडना है तो
अपनी ओर निशाना कर

या तो मुझसे आकर मिल
या मुझको दीवाना कर

बारिश में औरों पर भी
अपनी छतरी ताना कर

बाहर दिल की बात न ला
दिल को भी तहखाना कर

शहरों में हलचल ही रख
मत इनको वीराना कर

डॉ० कुअँर बेचैन

8 comments:

Anonymous said...

बहुत सुंदर गज़ल हैं, डॉक्टर साहब.

दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें.

-समीर लाल

अक्‍तूबर 20, 2006

Anonymous said...

वाह ! कितनी सुन्दर गज़ल है ।
कुँवर जी की और कविताओं का इन्तज़ार रहेगा ।

अक्‍तूबर 22, 2006

Anonymous said...

धन्य भाग्य!

आशा है आगे से और रचनायें यहाँ पढ़ने को मिलेंगी।

अक्‍तूबर 22, 2006

Anonymous said...

बहुत ही सुन्दर !! अब डॉ॰ कुँवर बेचैन जी अपनी अन्य कविताएँ भी यहाँ दे सकेंगे। पिछले दिनों कुँवर जी की कविताएँ बी.बी.सी. पर भी देखीं ..... डॉ॰ व्योम

अक्‍तूबर 23, 2006

Dr.Bhawna Kunwar said...

समीर जी, अनूप जी, अनुराग जी, और व्योम जी आप सबका बेचैन जी की ओर से शुक्रिया। ये सच है कि कुछ न कुछ नया आप सबको पढने को मिलता रहेगा।

अक्‍तूबर 30, 2006

arun prakash said...

bahut behtar

Anonymous said...

कुंवर बेचैन, की कबितायें और चित्रकारी का समन्वय अद्भुद है या तो कविता या चित्र पर अब ये दोनों के लिए सोच रहे है इनकी देखा देखि मुझे भी कविता की आदत पड़ती जा रही है...

डॉ.लाल रत्नाकर

Unknown said...

आज तो ब्लॉग जगत के तुर्रम खाँ भी बौने साबित हो गए साहब! वह भी टिप्पणियों में आपके कसीदे पढ़ रहे हैं।