Thursday, February 7, 2008


पेटों में अन्न नहीं भूख

साहस के होठ गए सूख

खेतों के कोश हुए रीते

जीवन की रात कहाँ बीते?


माटी के पाँव फटे

तरुवर के वस्त्र

छीन लिए सूखे ने

फ़सलों के शस्त्र

हाय भूख-डायन को

आज़ कौन जीते?


हड्डी की ठठरी में

उलझी है साँस

मुट्ठी भर भूख और

अंजलि भर प्यास

बीता हर दिन युग-सा

जीवन-विष पीते।


हृदयों के कार्यालय

आज हुए बंद

और न अब ड्यूटी का

तन ही पाबंद

साँसों की फा़इल पर

बँधे लाल फी़ते।

कुँअर बेचैन

5 comments:

seema gupta said...

हड्डी की ठठरी में

उलझी है साँस

मुट्ठी भर भूख और

अंजलि भर प्यास

बीता हर दिन युग-सा

जीवन-विष पीते।
'kmal ke abheevyktee, appreciable'

regards

फ़िरदौस ख़ान said...

माटी के पाँव फटे

तरुवर के वस्त्र

छीन लिए सूखे ने

फ़सलों के शस्त्र

हाय भूख-डायन को

आज़ कौन जीते?


बेहतरीन...

Anonymous said...

सुंदर अभिव्‍यक्ति। आपकी ओजस्‍वी वाणी में जब सुनेंगे तो बात ही कुछ और होगी।

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

bahut prakhar abhivyakti

Udan Tashtari said...

बहुत सुन्दर रचना. आगे पढ़ने का इन्तजार है. शुभकामनाऐँ.