Thursday, October 23, 2008

वर्षा-दिनः एक ऑफ़िस

जलती-बुझती रही

दिवस के ऑफ़िस में बिज़ली।

वर्षा थी,

यों अपने घर से धूप नहीं निकली।


सुबह-सुबह आवारा बादल गोली दाग़ गया

सूरज का चपरासी डरकर

घर को भाग गया

गीले मेज़पोश वाली-

भू-मेज़ रही इकली।

वर्षा थी, यूँ अपने घर से धूप नहीं निकली।


आज न आई आशुलेखिका कोई किरण-परी

विहग-लिपिक ने

आज न खोली पंखों की छतरी

सी-सी करती पवन

पिच गई स्यात् कहीं उँगली।

वर्षा थी, यों अपने घर से धूप नहीं निकली।


ख़ाली पड़ी सड़क की फ़ाइल कोई शब्द नहीं

स्याही बहुत

किंतु कोई लेखक उपलब्ध नहीं

सिर्फ़ अकेलेपन की छाया

कुर्सी से उछली।

वर्षा थी, यों अपने घर से धूप नहीं निकली।
कुँअर बेचैन

5 comments:

रंजना said...

वाह ! बिम्ब प्रयोग अन्यतम है.बहुत बहुत सुंदर रचना.

Manuj Mehta said...

जलती-बुझती रही

दिवस के ऑफ़िस में बिज़ली।

वर्षा थी,

यों अपने घर से धूप नहीं निकली।


सुबह-सुबह आवारा बादल गोली दाग़ गया

सूरज का चपरासी डरकर

घर को भाग गया

गीले मेज़पोश वाली-

भू-मेज़ रही इकली।


wah bahut khoob kunwar sahab. bahut prabhavshali rachna

Anonymous said...

ख़ाली पड़ी सड़क की फ़ाइल कोई शब्द नहीं

स्याही बहुत

किंतु कोई लेखक उपलब्ध नहीं

bahut khoooob

Suneel R. Karmele said...

बहुत सुन्‍दर कवि‍ता।
साधुवाद

जितेन्द़ भगत said...

nice poem