माँ की साँस
पिता की खाँसी
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।
छोड़ चेतना को
जड़ता तक
आना जीवन का
पत्थर में परिवर्तित पानी
मन के आँगन का-
यात्रा तो है; किंतु सही अभियान नहीं।
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।
संबंधों को
पढ़ती है
केवल व्यापारिकता
बंद कोठरी से बोली
शुभचिंतक भाव-लता-
'रिश्तों को घर दिखलाओ, दूकान नहीं।'
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।
कुँअर बेचैन
10 comments:
बेचैन जी, बहुत अच्छी रचना है. आज के समाज का कटु सत्य. बधाई.
आपको यहाँ देख कर सुखद लगा.
बेचैन जी, बहुत अच्छी रचना है. आज के समाज का कटु सत्य. बधाई.
आपको यहाँ देख कर सुखद लगा
कहाँ खो आए हम वो यादों के सुख
आंखों में झिलमिलाते तारों से
रिश्तों के विश्वास
आपकी कविता पढ़ कर बरबस ये भाव मन में जग गए
नाक हो तो कान भी हो..
bahut sahi... yathartha udbodhan ke satik shabda
इतनी सुन्दर कविता पढ़वाने के लिए आभार।
bahut prabhavshali kavita.
http://www.ashokvichar.blogspot.com
Bahut badiya. sach se rubaru karne ke liye aabhar.
आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद...
छोड़ चेतना को
जड़ता तक
आना जीवन का
पत्थर में परिवर्तित पानी
मन के आँगन का-
यात्रा तो है; किंतु सही अभियान नहीं।
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।
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कटु यथार्थ का मार्मिक भावपूर्ण सटीक चित्रण........भावुक कर गया
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