Tuesday, March 31, 2009

चिट्ठी है किसी दुखी मन की...

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बर्तन की यह उठका-पटकी
यह बात-बात पर झल्लाना
चिट्ठी है किसी दुखी मन की।

यह थकी देह पर कर्मभार
इसको खाँसी, उसको बुखार
जितना वेतन, उतना उधार
नन्हें-मुन्नों को गुस्से में
हर बार, मारकार पछताना
चिट्ठी है किसी दुखी मन की।

इतने धंधे, यह क्षीणकाय-
ढोती ही रहती विवश हाय !
ख़ुद ही उलझन, खुद ही उपाय
आने पर किसी अतिथि जन के
दुख में भी सहसा हँस जाना
चिट्ठी है किसी दुखी मन की।
डॉ० कुअँर बेचैन

7 comments:

कंचन सिंह चौहान said...

आने पर किसी अतिथि जन के
दुख में भी सहसा हँस जाना
चिट्ठी है किसी दुखी मन की।

behatareen...!

संध्या आर्य said...

achchhee kavita hai

शेफाली पाण्डे said...

बहुत खूबसूरत ....

sandeep sharma said...

दुख में भी सहसा हँस जाना
चिट्ठी है किसी दुखी मन की।

बहुत खूब...

Ajit Pal Singh Daia said...

Khoobsoorat hai Dr. saheb.

Ajit Pal Singh Daia said...

dr.shab beautifuuly exprssed.
WITH WISHES

AJIT PAL SINGH DAIA

Shardula said...

इस कविता को बस सादर प्रणाम ! उस दृष्टि को भी जो सब देख के शब्दों में ढाल सकी ये सब !
सादर,
शार्दुला