शीतल हवाएँ हैं
जो पिता के घर बहुत दिन तक नहीं रहतीं
ये तरल जल की परातें हैं
लाज़ की उज़ली कनातें हैं
है पिता का घर हृदय-जैसा
ये हृदय की स्वच्छ बातें हैं
बेटियाँ-
पवन-ऋचाएँ हैं
बात जो दिल की, कभी खुलकर नहीं कहतीं
हैं चपलता तरल पारे की
और दृढता ध्रुव-सितारे की
कुछ दिनों इस पार हैं लेकिन
नाव हैं ये उस किनारे की
बेटियाँ-
ऐसी घटाएँ हैं
जो छलकती हैं, नदी बनकर नहीं बहतीं
Dr.Kunwar Bechain
7 comments:
वाह ! कितनी सरल और सुन्दर कविता है ।
जनवरी 10, 2007
बहुत-बहुत शुक्रिया अनूप जी।
कुँअर
जनवरी 10, 2007
बहुत, बहुत सुन्दर. सीधे दिल तक असर करने वाली
फ़रवरी 07, 2007
बहुत-बहुत शुक्रिया मैथिली जी ।
कुँअर
फ़रवरी 07, 2007
अति सुन्दर.दिल के भीतर उतरती रचना. बहुत बधाई.
समीर जी बहुत-बहुत धन्यवाद।
श्री कुंवर बैचैन जी, - मैं यहाँ पर कुछ जोड़ने की अभिलाषा रखता हूँ,
बेटियाँ अगर शीतल हवाएं हैं तो बेटे घर के दीपक हैं
आन्धिओं मैं तूफानों मैं रखते घर को रोशन हैं
जो स्वयं जल जाते हैं घर के उजाले के लिए
और रोज खड़े होते हैं घर को रोशन करने के लिए
आशा है आप बेटों के लिए भी कुछ लिखेंगे और हमें फिर इक नयी रचना पढने का मौका देंगे
धन्यवाद्
Post a Comment