Wednesday, October 1, 2008

पेड़ बबूलों के

संघर्षों से बतियाने में

उलझा था जब मेरा मन

चला गया था आकर यौवन

मुझको बिना बताए

ज्यों अनपढ़ी प्रेम की पाती

किसी नायिका के हाथों से

आँधी में उड़ जाए।


चलते रहे साँस के सँग-सँग


पेड़ बबूलों के

पड़े रहे अपने-अपने घर

गजरे फूलों के

कई गुत्थियाँ सुलझाने में


उलझा था जब मेरा मन

कई सुअवसर मेरे होते-होते हुए पराए

जैसे नई प्रेमिका कोई

प्रेमी के घर आते-आते

गलियों में मुड़ जाए।


झुकी-कमर की लाठी की भी


कमर झुकी ऐसी

अपने घर में घूम रही है

बनकर परदेसी

दुख-दर्दों को समझाने में

उलझा था जब मेरा मन

कई सफलताओं के घर से पाँव लौटकर आए

जैसे कोई तीर्थयात्री

संगम पर कुछ दिन रहकर भी

लौटे बिना नहाए।

कुँअर बेचैन

5 comments:

कंचन सिंह चौहान said...

कई सफलताओं के घर से पाँव लौटकर आए

जैसे कोई तीर्थयात्री

संगम पर कुछ दिन रहकर भी

लौटे बिना नहाए।

kya kahu.n.... bas man ko chhu gai..!

MANVINDER BHIMBER said...

संघर्षों से बतियाने में

उलझा था जब मेरा मन

चला गया था आकर यौवन

मुझको बिना बताए

ज्यों अनपढ़ी प्रेम की पाती

किसी नायिका के हाथों से

आँधी में उड़ जाए।

bahut sunder....

शायदा said...

बहुत सुंदर कविता।

नीरज गोस्वामी said...

अद्भुत रचना...आप को पढ़ना हमेशा एक सुखद अनुभव रहा है...
नीरज

रंजना said...

वाह ! अद्भुत अद्वितीय हृदयस्पर्शी अतिसुन्दर !