अगर हम अपने दिल को अपना इक चाकर बना लेते
तो अपनी ज़िदंगी को और भी बेहतर बना लेते
तो अपनी ज़िदंगी को और भी बेहतर बना लेते
ये काग़ज़ पर बनी चिड़िया भले ही उड़ नही पाती
मगर तुम कुछ तो उसके बाज़ुओं में पर बना लेते
अलग रहते हुए भी सबसे इतना दूर क्यों होते
अगर दिल में उठी दीवार में हम दर बना लेते
हमारा दिल जो नाज़ुक फूल था सबने मसल डाला
ज़माना कह रहा है दिल को हम पत्थर बना लेते
हम इतनी करके मेहनत शहर में फुटपाथ पर सोये
ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते
'कुँअर' कुछ लोग हैं जो अपने धड़ पर सर नहीं रखते
अगर झुकना नहीं होता तो वो भी सर बना लेते
डॉ० कुँअर बेचैन
4 comments:
यूँ तो बेचैन जी को कितनी बार प्रत्यक्ष सुना है उनकी गज़लें हमेशा अच्छी लगती हैं। पढ़ने/ सुनने से जी नहीं भरता।
सुंदर गज़ल पढ़वाने के लिए धन्यवाद।
-प्रेमलता पांडे
अक्तूबर 27, 2006
कुँवर बेचैन जी की एक और खूबसूरत गज़ल पहुँचानें के लिये शुक्रिया ।
अक्तूबर 28, 2006
डॉ॰ कुँवर बेचैन की गजलें और विशेषकर उनके नवगीत अनुपमेय है...... आप ब्लाग पर इन्हें उपलब्ध करा रही हैं...... यह बहुत अच्छा है..... उनके कूछ नवगीत भी दें।
डॉ॰ व्योम
www.hindisahitya.blogspot.com
अक्तूबर 28, 2006
प्रेम लता जी भारत में रहते हुए तो उनको अक्सर सुनने का अवसर मिल जाता है विदेश में उतना नहीं मिल पाता पर मिलता जरूर है। आपको उनकी गज़ल पढकर अच्छा लगता है जानकर खुशी हुयी कि मैं पाठकों तक वो पहुँचा सकी जो उनको चाहिये।अनूप जी,व्योम जी आपका भी शुक्रिया।व्योम जी जल्दी ही आपको बेचैन जी के नवगीत भी पढने को मिलेगें कोई खास पसन्द हो तो जरूर बताईयेगा।
अक्तूबर 30, 2006
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