Sunday, July 15, 2007

एक गज़ल

अगर हम अपने दिल को अपना इक चाकर बना लेते
तो अपनी ज़िदंगी को और भी बेहतर बना लेते

ये काग़ज़ पर बनी चिड़िया भले ही उड़ नही पाती
मगर तुम कुछ तो उसके बाज़ुओं में पर बना लेते

अलग रहते हुए भी सबसे इतना दूर क्यों होते
अगर दिल में उठी दीवार में हम दर बना लेते

हमारा दिल जो नाज़ुक फूल था सबने मसल डाला
ज़माना कह रहा है दिल को हम पत्थर बना लेते

हम इतनी करके मेहनत शहर में फुटपाथ पर सोये
ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते

'कुँअर' कुछ लोग हैं जो अपने धड़ पर सर नहीं रखते
अगर झुकना नहीं होता तो वो भी सर बना लेते

डॉ० कुँअर बेचैन

4 comments:

Anonymous said...

यूँ तो बेचैन जी को कितनी बार प्रत्यक्ष सुना है उनकी गज़लें हमेशा अच्छी लगती हैं। पढ़ने/ सुनने से जी नहीं भरता।
सुंदर गज़ल पढ़वाने के लिए धन्यवाद।
-प्रेमलता पांडे

अक्‍तूबर 27, 2006

Anonymous said...

कुँवर बेचैन जी की एक और खूबसूरत गज़ल पहुँचानें के लिये शुक्रिया ।

अक्‍तूबर 28, 2006

Anonymous said...

डॉ॰ कुँवर बेचैन की गजलें और विशेषकर उनके नवगीत अनुपमेय है...... आप ब्लाग पर इन्हें उपलब्ध करा रही हैं...... यह बहुत अच्छा है..... उनके कूछ नवगीत भी दें।
डॉ॰ व्योम
www.hindisahitya.blogspot.com

अक्‍तूबर 28, 2006

Dr.Bhawna Kunwar said...

प्रेम लता जी भारत में रहते हुए तो उनको अक्सर सुनने का अवसर मिल जाता है विदेश में उतना नहीं मिल पाता पर मिलता जरूर है। आपको उनकी गज़ल पढकर अच्छा लगता है जानकर खुशी हुयी कि मैं पाठकों तक वो पहुँचा सकी जो उनको चाहिये।अनूप जी,व्योम जी आपका भी शुक्रिया।व्योम जी जल्दी ही आपको बेचैन जी के नवगीत भी पढने को मिलेगें कोई खास पसन्द हो तो जरूर बताईयेगा।

अक्‍तूबर 30, 2006