मीठापन जो लाया था मैं गाँव से
कुछ दिन शहर रहा
अब कड़वी ककड़ी है।
तब तो नंगे पाँव धूप में ठंडे थे
अब जूतों में रहकर भी जल जाते हैं
तब आया करती थी महक पसीने से
आज इत्र भी कपड़ों को छल जाते हैं
मुक्त हँसी जो लाया था मैं गाँव से
अब अनाम जंजीरों ने
आ जकड़ी है।
तालाबों में झाँक,सँवर जाते थे हम
अब दर्पण भी हमको नहीं सजा पाते
हाथों में लेकर जो फूल चले थे हम
शहरों में आते ही बने बहीखाते
नन्हा तिल जो लाया था मैं गाँव से
चेहरे पर अब
जाल-पूरती मकड़ी है।
तब गाली भी लोकगीत-सी लगती थी
अब यक़ीन भी धोखेबाज़ नज़र आया
तब तो घूँघट तक का मौन समझते थे
अब न शोर भी अपना अर्थ बता पाया
सिंह-गर्जना लाया था मैं गाँव से
अब वह केवल
पात-चबाती बकरी है।
अब कड़वी ककड़ी है।
तब तो नंगे पाँव धूप में ठंडे थे
अब जूतों में रहकर भी जल जाते हैं
तब आया करती थी महक पसीने से
आज इत्र भी कपड़ों को छल जाते हैं
मुक्त हँसी जो लाया था मैं गाँव से
अब अनाम जंजीरों ने
आ जकड़ी है।
तालाबों में झाँक,सँवर जाते थे हम
अब दर्पण भी हमको नहीं सजा पाते
हाथों में लेकर जो फूल चले थे हम
शहरों में आते ही बने बहीखाते
नन्हा तिल जो लाया था मैं गाँव से
चेहरे पर अब
जाल-पूरती मकड़ी है।
तब गाली भी लोकगीत-सी लगती थी
अब यक़ीन भी धोखेबाज़ नज़र आया
तब तो घूँघट तक का मौन समझते थे
अब न शोर भी अपना अर्थ बता पाया
सिंह-गर्जना लाया था मैं गाँव से
अब वह केवल
पात-चबाती बकरी है।
कुँअर बेचैन
9 comments:
आनन्द आ गया. बहुत सुन्दर रचना है. बधाई.
यथार्थ कविता है। आप को ब्लाग पर पढ़ कर बहुत अच्छा लगा।
इतनी सुंदर रचना पढाने के लिए धन्यवाद।
दादा,
प्रणाम.
आप और मुझ जैसे गाँवों के मुरीद क्यों आ गये शहरों को महिमामंडित करने. अपनी धूल,धुँआ,गोबर,पनघट और चौपाल वाली पुरातन विरासत ही भली थी. शहर तो वाक़ई अब काटने को दौड़ने लगे हैं.मकड़ी का जाल है निकल नहीं सकते अब इस जंजाल से.
अपनी मादरीज़ुबान मालवी में कहूँ तो ...
घर थो,आगणों थो और अपणो मचाण थो
दूकान हे,रूबाब हे,पईसा हे मसाण हे
(घर था,आँगन था,और अपना मचान था
अब शहर में (जो बिटवीन लाइन्स कहा है)
दूकान है,रूबाब है, पैसे हैं , पर सब स्मशान है.
मेरा भाग्य अच्छा रहा कि आपका ब्लाग पढने को मिला । आपकर और रचनाओं का आग्रह तो है ही, आपकी आवाज में यदि आपकी रचनाएं सुनने को मिल सकें तो सोने में सुहागा ।
आपकी ही दो पंक्तियां (बिना किसी सन्दर्भ, प्रसंग के) आपको अर्पित हैं -
कागज की नींव पर हैं, चाकू के कारखाने
ये सबकी असलियत है, कोई बुरा न माने
पूर्णतः सत्य.........
आनंद आ गया पढ़कर....बहुत बहुत सुंदर.
बहुत प्रखर अिभव्यिक्त ।
bahut sundar rachna ...
तब तो नंगे पाँव धूप में ठंडे थे
अब जूतों में रहकर भी जल जाते हैं
तब आया करती थी महक पसीने से
आज इत्र भी कपड़ों को छल जाते हैं
मुक्त हँसी जो लाया था मैं गाँव से
अब अनाम जंजीरों ने
आ जकड़ी है।
ये है वही आपका अपना अंदाज़ किस के हम लोग मुरीद हैं...! खूब ..बहुत खूब
Post a Comment