Tuesday, November 11, 2008

मीठापन जो लाया था मैं गाँव से...

मीठापन जो लाया था मैं गाँव से
कुछ दिन शहर रहा
अब कड़वी ककड़ी है।

तब तो नंगे पाँव धूप में ठंडे थे
अब जूतों में रहकर भी जल जाते हैं
तब आया करती थी महक पसीने से
आज इत्र भी कपड़ों को छल जाते हैं
मुक्त हँसी जो लाया था मैं गाँव से
अब अनाम जंजीरों ने
आ जकड़ी है।

तालाबों में झाँक,सँवर जाते थे हम
अब दर्पण भी हमको नहीं सजा पाते
हाथों में लेकर जो फूल चले थे हम
शहरों में आते ही बने बहीखाते
नन्हा तिल जो लाया था मैं गाँव से
चेहरे पर अब
जाल-पूरती मकड़ी है।

तब गाली भी लोकगीत-सी लगती थी
अब यक़ीन भी धोखेबाज़ नज़र आया
तब तो घूँघट तक का मौन समझते थे
अब न शोर भी अपना अर्थ बता पाया
सिंह-गर्जना लाया था मैं गाँव से
अब वह केवल
पात-चबाती बकरी है।
कुँअर बेचैन

9 comments:

Udan Tashtari said...

आनन्द आ गया. बहुत सुन्दर रचना है. बधाई.

दिनेशराय द्विवेदी said...

यथार्थ कविता है। आप को ब्लाग पर पढ़ कर बहुत अच्छा लगा।

संगीता पुरी said...

इतनी सुंदर रचना पढाने के लिए धन्‍यवाद।

sanjay patel said...

दादा,
प्रणाम.
आप और मुझ जैसे गाँवों के मुरीद क्यों आ गये शहरों को महिमामंडित करने. अपनी धूल,धुँआ,गोबर,पनघट और चौपाल वाली पुरातन विरासत ही भली थी. शहर तो वाक़ई अब काटने को दौड़ने लगे हैं.मकड़ी का जाल है निकल नहीं सकते अब इस जंजाल से.
अपनी मादरीज़ुबान मालवी में कहूँ तो ...

घर थो,आगणों थो और अपणो मचाण थो
दूकान हे,रूबाब हे,पईसा हे मसाण हे

(घर था,आँगन था,और अपना मचान था
अब शहर में (जो बिटवीन लाइन्स कहा है)
दूकान है,रूबाब है, पैसे हैं , पर सब स्मशान है.

Anonymous said...

मेरा भाग्‍य अच्‍छा रहा कि आपका ब्‍लाग पढने को मिला । आपकर और रचनाओं का आग्रह तो है ही, आपकी आवाज में यदि आपकी रचनाएं सुनने को मिल सकें तो सोने में सुहागा ।
आपकी ही दो पंक्तियां (बिना किसी सन्‍दर्भ, प्रसंग के) आपको अर्पित हैं -
कागज की नींव पर हैं, चाकू के कारखाने
ये सबकी असलियत है, कोई बुरा न माने

रंजना said...

पूर्णतः सत्य.........
आनंद आ गया पढ़कर....बहुत बहुत सुंदर.

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

बहुत प्रखर अिभव्यिक्त ।

pallavi trivedi said...

bahut sundar rachna ...

कंचन सिंह चौहान said...

तब तो नंगे पाँव धूप में ठंडे थे
अब जूतों में रहकर भी जल जाते हैं
तब आया करती थी महक पसीने से
आज इत्र भी कपड़ों को छल जाते हैं
मुक्त हँसी जो लाया था मैं गाँव से
अब अनाम जंजीरों ने
आ जकड़ी है।

ये है वही आपका अपना अंदाज़ किस के हम लोग मुरीद हैं...! खूब ..बहुत खूब