Wednesday, December 3, 2008

आँगन की अल्पना सँभालिए...

दरवाज़े तोड़-तोड़ कर

घुस न जाएँ आँधियाँ मकान में,

आँगन की अल्पना सँभालिए।


आई कब आँधियाँ यहाँ

बेमौसम शीतकाल में

झागदार मेघ उग रहे

नर्म धूप के उबाल में

छत से फिर कूदे हैं अँधियारे

चंद्रमुखी कल्पना सँभालिए।


आँगन से कक्ष में चली

शोरमुखी एक खलबली

उपवन-सी आस्था हुई

पहले से और जंगली

दीवारों पर टँगी हुई

पंखकटी प्रार्थना सँभालिए।
कुँअर बेचैन

Thursday, November 20, 2008

रिश्तों को घर दिखलाओ...

माँ की साँस

पिता की खाँसी

सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।


छोड़ चेतना को

जड़ता तक

आना जीवन का

पत्थर में परिवर्तित पानी

मन के आँगन का-

यात्रा तो है; किंतु सही अभियान नहीं।

सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।


संबंधों को

पढ़ती है

केवल व्यापारिकता

बंद कोठरी से बोली

शुभचिंतक भाव-लता-

'रिश्तों को घर दिखलाओ, दूकान नहीं।'

सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।
कुँअर बेचैन

Tuesday, November 11, 2008

मीठापन जो लाया था मैं गाँव से...

मीठापन जो लाया था मैं गाँव से
कुछ दिन शहर रहा
अब कड़वी ककड़ी है।

तब तो नंगे पाँव धूप में ठंडे थे
अब जूतों में रहकर भी जल जाते हैं
तब आया करती थी महक पसीने से
आज इत्र भी कपड़ों को छल जाते हैं
मुक्त हँसी जो लाया था मैं गाँव से
अब अनाम जंजीरों ने
आ जकड़ी है।

तालाबों में झाँक,सँवर जाते थे हम
अब दर्पण भी हमको नहीं सजा पाते
हाथों में लेकर जो फूल चले थे हम
शहरों में आते ही बने बहीखाते
नन्हा तिल जो लाया था मैं गाँव से
चेहरे पर अब
जाल-पूरती मकड़ी है।

तब गाली भी लोकगीत-सी लगती थी
अब यक़ीन भी धोखेबाज़ नज़र आया
तब तो घूँघट तक का मौन समझते थे
अब न शोर भी अपना अर्थ बता पाया
सिंह-गर्जना लाया था मैं गाँव से
अब वह केवल
पात-चबाती बकरी है।
कुँअर बेचैन

Thursday, October 23, 2008

वर्षा-दिनः एक ऑफ़िस

जलती-बुझती रही

दिवस के ऑफ़िस में बिज़ली।

वर्षा थी,

यों अपने घर से धूप नहीं निकली।


सुबह-सुबह आवारा बादल गोली दाग़ गया

सूरज का चपरासी डरकर

घर को भाग गया

गीले मेज़पोश वाली-

भू-मेज़ रही इकली।

वर्षा थी, यूँ अपने घर से धूप नहीं निकली।


आज न आई आशुलेखिका कोई किरण-परी

विहग-लिपिक ने

आज न खोली पंखों की छतरी

सी-सी करती पवन

पिच गई स्यात् कहीं उँगली।

वर्षा थी, यों अपने घर से धूप नहीं निकली।


ख़ाली पड़ी सड़क की फ़ाइल कोई शब्द नहीं

स्याही बहुत

किंतु कोई लेखक उपलब्ध नहीं

सिर्फ़ अकेलेपन की छाया

कुर्सी से उछली।

वर्षा थी, यों अपने घर से धूप नहीं निकली।
कुँअर बेचैन

Monday, October 20, 2008

गोरी धूप चढ़ी

(रात)
जाते-जाते दिवस,
रात की पुस्तक खोल गया।
रात कि जिस पर
सुबह-शाम की स्वर्णिम ज़िल्द चढ़ी
गगन-ज्योतिषी ने
तारों की भाषा ख़ूब पढ़ी
आया तिमिर,
शून्य के घट में स्याही घोल गया।

(सुबह)

देख भोर को
नभ-आनन पर छाई फिर लाली
पेड़ों पर बैठे पत्ते
फिर बजा उठे ताली
इतनी सारी-
चिड़ियों वाला पिंजड़ा डोल गया।

(दोपहर)
ड्यूटी की पाबंद,
देखकर अपनी भोर-घड़ी
दिन के ऑफ़िस की
सीढ़ी पर गोरी धूप चढ़ी
सूरज- 'बॉस'
शाम तक कुछ 'मैटर' बोल गया।

(शाम)
नभ के मेज़पोश पर
जब स्याही-सी बिखरी
शाम हुई
ऑफिस की सीढी
धूप-लली उतरी
तम की भीड़
धूप का स्वर्णिम कंगन मौल गया।
कुँअर बेचैन

Monday, October 13, 2008

शाम

संध्या के केशों में
बँध गया
'रिबन'
-सूरज की लाली का।

हँसुली-सा
इंद्रघनुष
बिंदिया-सा सूर्य
मेघों की
माला में
ज्योतित वैदूर्य्य
सतरंगे वेशों में
बस गया
बदन

-फूलभरी डाली का।

कुंडल-से
झूम रहे
क्षितिजों पर वृंत
चूम रहा
अधरों को
मधुऋतु का कंत
तन-मन के देशों को
दे गया
गगन
-मौसम ख़ुशहाली का।

कुँअर बेचैन

Sunday, October 5, 2008

सुबह

सोई खिड़कियों को
जगा गई
नर्स-सी हवा।
देकर मधुगंधिनी दवा।

रोगी
दरवाज़ों की
बाजू में किरणों की घोंपकर सुई
सूरज-चिकित्सक ने
रख दी फिर
धुली हुई धूप की रुई

होने से
बच गई
चौखट विधवा।
जगा गई नर्स-सी हवा।

कुँअर बेचैन

Wednesday, October 1, 2008

पेड़ बबूलों के

संघर्षों से बतियाने में

उलझा था जब मेरा मन

चला गया था आकर यौवन

मुझको बिना बताए

ज्यों अनपढ़ी प्रेम की पाती

किसी नायिका के हाथों से

आँधी में उड़ जाए।


चलते रहे साँस के सँग-सँग


पेड़ बबूलों के

पड़े रहे अपने-अपने घर

गजरे फूलों के

कई गुत्थियाँ सुलझाने में


उलझा था जब मेरा मन

कई सुअवसर मेरे होते-होते हुए पराए

जैसे नई प्रेमिका कोई

प्रेमी के घर आते-आते

गलियों में मुड़ जाए।


झुकी-कमर की लाठी की भी


कमर झुकी ऐसी

अपने घर में घूम रही है

बनकर परदेसी

दुख-दर्दों को समझाने में

उलझा था जब मेरा मन

कई सफलताओं के घर से पाँव लौटकर आए

जैसे कोई तीर्थयात्री

संगम पर कुछ दिन रहकर भी

लौटे बिना नहाए।

कुँअर बेचैन

Wednesday, June 18, 2008

अँधेरी खाइयों के बीच

दुखों की स्याहियों के बीच

अपनी ज़िंदगी ऐसी

कि जैसे सोख़्ता हो।


जनम से मृत्यु तक की

यह सड़क लंबी

भरी है धूल से ही

यहाँ हर साँस की दुलहिन

बिंधी है शूल से ही

अँधेरी खाइयों के बीच

अपनी ज़िंदगी ऐसी

कि ज्यों ख़त लापता हो।


हमारा हर दिवस रोटी

जिसे भूखे क्षणों ने

खा लिया है

हमारी रात है थिगड़ी

जिसे बूढ़ी अमावस ने सिया है

घनी अमराइयों के बीच

अपनी ज़िंदगी,

जैसे कि पतझर की लता हो।


हमारी उम्र है स्वेटर

जिसे दुख की

सलाई ने बुना है

हमारा दर्द है धागा

जिसे हर प्रीतिबाला ने चुना है

कई शहनाइयों के बीच

अपनी ज़िंदगी

जैसे अभागिन की चिता हो।

डॉ० कुँअर बेचैन

Friday, April 11, 2008

दिन से लंबा ख़ालीपन


नींदें तो

रातों से लंबी

दिन से लंबा ख़ालीपन

अब क्या होगा मेरे मन?


मन की मीन

नयन की नौका

जब भी चाहे

बीती-अनबीती बातों में

डूबे-उतराए


निष्ठुर तट ने

तोड़ दिए हैं

बर्तुल लहरों के कंगन।

अब क्या होगा मेरे मन?


जितनी साँसें

रहन रखी थीं

भोले जीवन ने

एक-एक कर

छीनीं सारी

अश्रु-महाजन ने


लुटा हाट में

इस दुनिया की,

प्राणों का मधुमय कंचन।

अब क्या होगा मेरे मन।।

कुँअर बेचैन

Friday, March 14, 2008

चीज़े बोलती हैं

अगर तुम एक पल भी

ध्यान देकर सुन सको तो,

तुम्हें मालूम यह होगा

कि चीजें बोलती हैं।


तुम्हारे कक्ष की तस्वीर

तुमसे कह रही है

बहुत दिन हो गए तुमने मुझे देखा नहीं है

तुम्हारे द्वार पर यूँ ही पड़े

मासूम ख़त पर

तुम्हारे चुंबनों की एक भी रेखा नहीं है


अगर तुम बंद पलकों में

सपन कुछ बुन सको तो

तुम्हें मालूम यह होगा

कि वे दृग खोलती हैं।


वो रामायण

कि जिसकी ज़िल्द पर जाले पुरे हैं

तुम्हें ममता-भरे स्वर में अभी भी टेरती है।

वो खूँटी पर टँगे

जर्जर पुराने कोट की छवि

तुम्हें अब भी बड़ी मीठी नज़र से हेरती है।


अगर तुम भाव की कलियाँ

हृदय से चुन सको तो

तुम्हें मालूम यह होगा

कि वे मधु घोलती हैं।

कुँअर बेचैन

Thursday, February 14, 2008

बीजगणित-सी शाम

अंकगणित-सी सुबह है मेरी

बीजगणित-सी शाम

रेखाओं में खिंची हुई है

मेरी उम्र तमाम।


भोर-किरण ने दिया गुणनफल

दुख का, सुख का भाग

जोड़ दिए आहों में आँसू

घटा प्रीत का फाग

प्रश्नचिह्न ही मिले सदा से

मिला न पूर्ण विराम।


जन्म-मरण के 'ब्रैकिट' में

यह हुई ज़िंदगी क़ैद

ब्रैकिट के ही साथ खुल गए

इस जीवन के भेद

नफ़ी-नफ़ी सब जमा हो रहे

आँसू आठों याम।


आँसू, आह, अभावों की ही

ये रेखाएँ तीन

खींच रही हैं त्रिभुज ज़िंदगी का

होकर ग़मगीन

अब तक तो ऐसे बीती है

आगे जाने राम।

कुँअर बेचैन

Thursday, February 7, 2008

रात कहाँ बीते

पेटों में अन्न नहीं भूख

साहस के होठ गए सूख

खेतों के कोश हुए रीते

जीवन की रात कहाँ बीते?


माटी के पाँव फटे

तरुवर के वस्त्र

छीन लिए सूखे ने

फ़सलों के शस्त्र

हाय भूख-डायन को

आज़ कौन जीते?


हड्डी की ठठरी में

उलझी है साँस

मुट्ठी भर भूख और

अंजलि भर प्यास

बीता हर दिन युग-सा

जीवन-विष पीते।


हृदयों के कार्यालय

आज हुए बंद

और न अब ड्यूटी का

तन ही पाबंद

साँसों की फा़इल पर

बँधे लाल फी़ते।

कुँअर बेचैन


पेटों में अन्न नहीं भूख

साहस के होठ गए सूख

खेतों के कोश हुए रीते

जीवन की रात कहाँ बीते?


माटी के पाँव फटे

तरुवर के वस्त्र

छीन लिए सूखे ने

फ़सलों के शस्त्र

हाय भूख-डायन को

आज़ कौन जीते?


हड्डी की ठठरी में

उलझी है साँस

मुट्ठी भर भूख और

अंजलि भर प्यास

बीता हर दिन युग-सा

जीवन-विष पीते।


हृदयों के कार्यालय

आज हुए बंद

और न अब ड्यूटी का

तन ही पाबंद

साँसों की फा़इल पर

बँधे लाल फी़ते।

कुँअर बेचैन

Tuesday, January 22, 2008

पिन बहुत सारे

जिंदगी का अर्थ

मरना हो गया है

और जीने के लिये हैं

दिन बहुत सारे ।


इस

समय की मेज़ पर

रक्खी हुई

जिंदगी है 'पिन-कुशन' जैसी

दोस्ती का अर्थ

चुभना हो गया है

और चुभने के लिए हैं

पिन बहुत सारे।


निम्न-मध्यमवर्ग के

परिवार की

अल्पमासिक आय-सी

है जिंदगी

वेतनों का अर्थ

चुकना हो गया है

और चुकने के लिए हैं

ऋण बहुत सारे।


डॉ० कुँअर बेचैन

Thursday, January 17, 2008

मौत तो आनी है तो फिर मौत का क्यों डर रखूँ

मौत तो आनी है तो फिर मौत का क्यों डर रखूँ
जिंदगी आ, तेरे क़दमों पर मैं अपना सर रखूँ

जिसमें माँ और बाप की सेवा का शुभ संकल्प हो
चाहता हूँ मैं भी काँधे पर वही काँवर रखूँ

हाँ, मुझे उड़ना है लेकिन इसका मतलब यह नहीं
अपने सच्चे बाज़ुओं में इसके-उसके पर रखूँ

आज कैसे इम्तहाँ में उसने डाला है है मुझे
हुक्म यह देकर कि अपना धड़ रखूँ या सर रखूँ

कौन जाने कब बुलावा आए और जाना पड़े
सोचता हूँ हर घड़ी तैयार अब बिस्तर रखूँ

ऐसा कहना हो गया है मेरी आदत में शुमार
काम वो तो कर लिया है काम ये भी कर रख रखूँ

खेल भी चलता रहे और बात भी होती रहे
तुम सवालों को रखो मैं सामने उत्तर रखूँ

डॉ० कुँअर बेचैन

Wednesday, January 16, 2008

जिसे बनाया वृद्ध पिता के श्रमजल ने

जिसे बनाया वृद्ध पिता के श्रमजल ने
दादी की हँसुली ने, माँ की पायल ने
उस सच्चे घर की कच्ची दीवारों पर
मेरी टाई टँगने से कतराती है।

माँ को और पिता को यह कच्चा घर भी
एक बड़ी अनुभूति, मुझे केवल घटना
यह अंतर ही संबंधों की गलियों में
ला देता है कोई निर्मम दुर्घटना

जिन्हें रँगा जलते दीपक के काजल ने
बूढ़ी गागर से छलके गंगाजल ने
उन दीवारों पर टँगने से पहले ही
पत्नी के कर से साड़ी गिर जाती है।

जब से युग की चकाचौंध के कुहरे ने
छीनी है आँगन से नित्य दिया-बाती
तबसे लिपे आँगनों से, दीवारों से
बंद नाक को सोंधी गंध नहीं आती

जिसे चिना था घुटनों तक की दलदल ने
सने-पुते-झीने ममता के आँचल ने
पुस्तक के पन्नों में पिची हुई राखी
उस घर को घर कहने में शरमाती है।

साड़ी-टाई बदलें, या ये घर बदलें
प्रश्नचिह्न नित और बड़ा होता जाता
कारण केवल यही, दिखावों से जुड़ हम
तोड़ रहे अनुभूति, भावना से नाता

जिन्हें दिया संगीत द्वार की साँकल ने
खाँसी के ठनके, चूड़ी की हलचल ने
उन संकेतों वाले भावुक घूँघट पर
दरवाज़े की ' कॉल वैल ' हँस जाती है।

डॉ० कुँअर बेचैन