Tuesday, January 15, 2013
Monday, October 25, 2010
अब आग के लिबास को ज्यादा न दाबिए...
अब आग के लिबास को ज्यादा न दाबिए।
सुलगी हुई कपास को ज्यादा न दाबिए।
ऐसा न हो कि उँगलियाँ घायल पड़ी मिलें
चटके हुए गिलास को ज्यादा न दाबिए।
चुभकर कहीं बना ही न दे घाव पाँव में
पैरों तले की घास को ज्यादा न दाबिए।
मुमकिन है खून आपके दामन पे जा लगे
ज़ख़्मों के आस पास यों ज्यादा न दाबिए।
पीने लगे न खून भी आँसू के साथ-साथ
यों आदमी की प्यास को ज्यादा न दाबिए।
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 4:14 PM 13 comments
Tuesday, August 3, 2010
बंद होंठों में छुपा लो...
बंद होंठों में छुपा लो
ये हँसी के फूल
वर्ना रो पड़ोगे।
हैं हवा के पास
अनगिन आरियाँ
कटखने तूफान की
तैयारियाँ
कर न देना आँधियों को
रोकने की भूल
वर्ना रो पड़ोगे।
हर नदी पर
अब प्रलय के खेल हैं
हर लहर के ढंग भी
बेमेल हैं
फेंक मत देना नदी पर
निज व्यथा की धूल
वर्ना रो पड़ोगे।
बंद होंठों में छुपा लो
ये हँसी के फूल
वर्ना रो पड़ोगे।
Kunwar
Posted by Dr.Bhawna Kunwar at 11:07 PM 13 comments
Saturday, April 17, 2010
वो लहरें कहाँ वो रवानी कहाँ है...
वो लहरें कहाँ वो रवानी कहाँ है
बता ज़िन्दगी ज़िन्दगानी कहाँ है
ज़रा ढूँढिए इस धुँए के सफ़र में
हमारी-तुम्हारी कहानी कहाँ है
बड़ी देर से सोचते हैं कि आए
मगर अब हमें नींद आनी कहाँ है
बताएँ ज़रा उँगलियाँ पूछती हैं
हमारी पुरानी निशानी कहाँ है
फ़कीरी में है बादशाहत हमारी
न यह पूछिए राजधानी कहाँ
कुँअर
Posted by Dr.Bhawna Kunwar at 5:37 PM 16 comments
Monday, April 12, 2010
बड़ा उदास सफ़र है हमारे साथ रहो ..
बस एक तुम पै नज़र है हमारे साथ रहो।
हम आज एक भटकते हुए मुसाफ़िर हैं
न कोई राह न घर है हमारे साथ रहो।
तुम्हें ही छाँव समझकर यहाँ चले आए
तुम्हारी गोद में सर है हमारे साथ रहो।
कहीं भी हमको डुबा देगी ये पता है हमें
हरेक साँस भँवर है हमारे साथ रहो।
हर इक चिराग़ धुँए में घिरा-घिरा है 'कुँअर'
बड़ा अजीब नगर है हमारे साथ रहो।
'कुँअर'
Posted by Dr.Bhawna Kunwar at 6:50 AM 10 comments
Sunday, February 28, 2010
शुभकामनाएं
जब से होली के मिले प्यार भरे ये रंग
मन की चुनरी उड़ चली जैसे उड़े पतंग।
लेकर आये साथ में रंगों का त्यौहार
होली की शुभकामना करें आप स्वीकार।
कुँअर बेचैन
आप सभी को परिवार सहित होली की ढेर सारी शुभकामनाएं
डॉ० कुँअर बेचैन
Posted by Dr.Bhawna Kunwar at 12:07 AM 9 comments
Sunday, May 3, 2009
सर्दियां १
22
छत हुई बातून वातायन मुखर हैं
सर्दियाँ हैं।
एक तुतला शोर
सड़कें कूटता है
हर गली का मौन
क्रमशः टूटता है
बालकों के खेल घर से बेख़बर हैं
सर्दियाँ हैं।
दोपहर भी
श्वेत स्वेटर बुन रही है
बहू बुड्ढी सास का दुःख
सुन रही है
बात उनकी और है जो हमउमर हैं
सर्दियाँ हैं।
चाँदनी रातें
बरफ़ की सिल्लियाँ हैं
ये सुबह, ये शाम
भीगी बिल्लियाँ हैं
साहब दफ़्तर में नहीं हैं आज घर हैं
सर्दियाँ हैं।
डॉ० कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 11:15 PM 20 comments
Thursday, April 16, 2009
हम सुपारी-से
हम सुपारी-से।
ज़िंदगी-है तश्तरी का पान
काल-घर जाता हुआ मेहमान
चार कंधों की
सवारी-से।
जन्म-अंकुर में बदलता बीज़
मृत्यु है कोई ख़रीदी चीज़
साँस वाली
रेजगारी-से।
बचपना-ज्यों सूर, कवि रसखान
है बुढ़ापा-रहिमना का ग्यान
दिन जवानी के
बिहारी-से।
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 12:20 AM 6 comments
Monday, April 6, 2009
शोकपत्र के ऊपर
भीतर-भीतर ग़म
जैसे शोकपत्र के ऊपर शादी का अलबम।
समय-मछेरे के हाथों का
थैला है जीवन
जिसमें जिंदा मछली जैसा
उछल रहा है मन
भीतर-भीतर कई मरण हैं
ऊपर कई जनम
जैसे शोकपत्र के ऊपर शादी का अलबम।
अपना-अपना दृष्टिकोण है
अपना-अपना मत
लेकिन मेरे मत में हम सब
बिना पते के ख़त
लिखा हुआ है जहाँ
सुघर शब्दों में दुख का क्रम
जैसे शोकपत्र के ऊपर शादी का अलबम।
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 1:21 AM 4 comments
Tuesday, March 31, 2009
चिट्ठी है किसी दुखी मन की...
बर्तन की यह उठका-पटकी
यह बात-बात पर झल्लाना
चिट्ठी है किसी दुखी मन की।
यह थकी देह पर कर्मभार
इसको खाँसी, उसको बुखार
जितना वेतन, उतना उधार
नन्हें-मुन्नों को गुस्से में
हर बार, मारकार पछताना
चिट्ठी है किसी दुखी मन की।
इतने धंधे, यह क्षीणकाय-
ढोती ही रहती विवश हाय !
ख़ुद ही उलझन, खुद ही उपाय
आने पर किसी अतिथि जन के
दुख में भी सहसा हँस जाना
चिट्ठी है किसी दुखी मन की।
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 1:00 AM 7 comments
Friday, March 6, 2009
तुम्हारे हाथ में टँककर ...
बने हीरे, बने मोती
बटन, मेरी कमीज़ों के।
नयन को जागरण देतीं
नहायी देह की छुअनें
कभी भीगी हुईं अलकें
कभी ये चुंबनों के फूल
केसर-गंध-सी पलकें
सवेरे ही सपन झूले
बने ये सावनी लोचन
कई त्यौहार तीजों के।
बनी झंकार वीणा की
तुम्हारी चूड़ियों के हाथ में
यह चाय की प्याली
थकावट की चिलकती धूप को
दो नैन, हरियाली
तुम्हारी दृष्टियाँ छूकर
उभरने और ज्यादा लग गए
ये रंग चीज़ों के।
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 2:01 AM 5 comments
Monday, March 2, 2009
लोहे ने कब कहा ...
कि तुम गाना छोड़ो
तुम खुद ही जीवन की लय को भूल गए।
वह प्रहार सहकर भी
गाया करता है
सधी हुई लय में,
झंकारों के स्वर में
तुम प्रहार को
सहे बिना भी चिल्लाए
किया टूटने का अभिनय
दुनिया भर में
लोहे ने कब कहा
कि तुम रिश्ते तोड़ो
तुम्हीं टूटने तक धागों पर झूल गए।
हुई धूप में गर्म
शिशिर में शीतल भी
है संवेदनशीला
लोहे ही जड़ता
पर तुम जान-बूझ,
उन कमरों में बैठे
जिन पर ऋतु का
कोई असर नहीं पड़ता
लोहे ने कब कहा
इड़ा के सँग दौड़ो
यह तुम थे जो श्रद्धा के प्रतिकूल गए।
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 11:49 PM 9 comments
Wednesday, February 18, 2009
मन रीझ न यों...
अपनी कुहनी नहीं टिका
उन संबंधों के शूलों पर
जिनकी गलबहियों से तेरे
मानवपन का दम घुटता हो।
जो आए और छील जाए
कोमल मूरत मृदु भावों की
तेरी गठरी को दे बैठे
बस एक दिशा बिखरावों की
मन !
बाँध न अपनी हर नौका
ऐसी तरंग के कूलों पर
बस सिर्फ़ ढहाने की ख़ातिर
जिसका पग तट तक उठता हो।
जो तेरी सही नज़र पर भी
टूटा चश्मा पहना जाए
तेरे गीतों की धारा को
मरुथल का रेत बना जाए
मन !
रीझ न यों निर्गंध-बुझे
उस सन्नाटे के फूलों पर
जिनकी छुअनों से दृष्टि जले,
भावुक मीठापन लुटता हो।
कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 11:36 PM 8 comments
Sunday, January 11, 2009
चेतना उपेक्षित है...
जिस दिन ठिठुर रही थी
कुहरे-भरी नदी, माँ की उदास काया।
लानी थी गर्म चादर; मैं मेज़पोश लाया।
कैसा नशा चढ़ा है
यह आज़ टाइयों पर
आँखे तरेरती हैं
अपनी सुराहियों पर
मन से ना बाँध पाई रिश्तें गुलाब जैसे
ये राखियाँ बँधी हैं केवल कलाइयों पर
कैसी विडंबना है
जिस दिन मुझे पिता ने,
बैसाखियाँ हटाकर; बेटा कहा, बुलाया।
मैं अर्थ ढूँढ़ने को तब शब्दकोश लाया।
तहज़ीब की दवा को
जो रोग लग गया है
इंसान तक अभी तो
दो-चार डग गया है
जाने किसे-किसे यह अब राख में बदल दे
जो बर्फ़ को नदी में चंदन सुलग गया है
कैसी विडंबना है
इस सभ्यता-शिखर पर
मन में जमी बरफ़ ने इतना धुँआ उड़ाया।
लपटें न दी दिखाई; सारा शहर जलाया।
कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 11:38 PM 9 comments
Friday, January 2, 2009
जिस रोज़ से पछवा चली...
पछवा चली
आँधी खड़ी है गाँव में
उखड़े कलश, है कँपकँपी
इन मंदिरों के पाँव में।
जड़ से हिले बरगद कई
पीपल झुके, तुलसी झरी
पन्ने उड़े सद्ग्रंथ के
दीपक बुझे, बाती गिरी
मिट्टी हुआ
मीठा कुआँ
भटके सभी अँधियाव में
उखड़े कलश, है कँपकँपी
इन मंदिरों के पाँव में।
बँधकर कलावों में बनी
जो देवता, 'पीली डली'
वह भी हटी, सतिए मिटे
ओंधी पड़ी गंगाजली
किंरचें हुआ
तन शंख का
सीपी गिरी तालाब में
उखड़े कलश, है कँपकँपी
इन मंदिरों के पाँव में।
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 10:36 PM 5 comments
Wednesday, December 3, 2008
आँगन की अल्पना सँभालिए...
घुस न जाएँ आँधियाँ मकान में,
आँगन की अल्पना सँभालिए।
आई कब आँधियाँ यहाँ
बेमौसम शीतकाल में
झागदार मेघ उग रहे
नर्म धूप के उबाल में
छत से फिर कूदे हैं अँधियारे
चंद्रमुखी कल्पना सँभालिए।
आँगन से कक्ष में चली
शोरमुखी एक खलबली
उपवन-सी आस्था हुई
पहले से और जंगली
दीवारों पर टँगी हुई
पंखकटी प्रार्थना सँभालिए।
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 11:33 PM 3 comments
Thursday, November 20, 2008
रिश्तों को घर दिखलाओ...
पिता की खाँसी
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।
छोड़ चेतना को
जड़ता तक
आना जीवन का
पत्थर में परिवर्तित पानी
मन के आँगन का-
यात्रा तो है; किंतु सही अभियान नहीं।
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।
संबंधों को
पढ़ती है
केवल व्यापारिकता
बंद कोठरी से बोली
शुभचिंतक भाव-लता-
'रिश्तों को घर दिखलाओ, दूकान नहीं।'
सुनते थे जो पहले, अब वे कान नहीं।
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 9:33 PM 10 comments
Tuesday, November 11, 2008
मीठापन जो लाया था मैं गाँव से...
अब कड़वी ककड़ी है।
तब तो नंगे पाँव धूप में ठंडे थे
अब जूतों में रहकर भी जल जाते हैं
तब आया करती थी महक पसीने से
आज इत्र भी कपड़ों को छल जाते हैं
मुक्त हँसी जो लाया था मैं गाँव से
अब अनाम जंजीरों ने
आ जकड़ी है।
तालाबों में झाँक,सँवर जाते थे हम
अब दर्पण भी हमको नहीं सजा पाते
हाथों में लेकर जो फूल चले थे हम
शहरों में आते ही बने बहीखाते
नन्हा तिल जो लाया था मैं गाँव से
चेहरे पर अब
जाल-पूरती मकड़ी है।
तब गाली भी लोकगीत-सी लगती थी
अब यक़ीन भी धोखेबाज़ नज़र आया
तब तो घूँघट तक का मौन समझते थे
अब न शोर भी अपना अर्थ बता पाया
सिंह-गर्जना लाया था मैं गाँव से
अब वह केवल
पात-चबाती बकरी है।
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 2:45 AM 9 comments
Thursday, October 23, 2008
वर्षा-दिनः एक ऑफ़िस
दिवस के ऑफ़िस में बिज़ली।
वर्षा थी,
यों अपने घर से धूप नहीं निकली।
सुबह-सुबह आवारा बादल गोली दाग़ गया
सूरज का चपरासी डरकर
घर को भाग गया
गीले मेज़पोश वाली-
भू-मेज़ रही इकली।
वर्षा थी, यूँ अपने घर से धूप नहीं निकली।
आज न आई आशुलेखिका कोई किरण-परी
विहग-लिपिक ने
आज न खोली पंखों की छतरी
सी-सी करती पवन
पिच गई स्यात् कहीं उँगली।
वर्षा थी, यों अपने घर से धूप नहीं निकली।
ख़ाली पड़ी सड़क की फ़ाइल कोई शब्द नहीं
स्याही बहुत
किंतु कोई लेखक उपलब्ध नहीं
सिर्फ़ अकेलेपन की छाया
कुर्सी से उछली।
वर्षा थी, यों अपने घर से धूप नहीं निकली।
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 1:31 AM 5 comments
Monday, October 20, 2008
गोरी धूप चढ़ी
रात की पुस्तक खोल गया।
रात कि जिस पर
सुबह-शाम की स्वर्णिम ज़िल्द चढ़ी
गगन-ज्योतिषी ने
तारों की भाषा ख़ूब पढ़ी
आया तिमिर,
शून्य के घट में स्याही घोल गया।
(सुबह)
देख भोर को
नभ-आनन पर छाई फिर लाली
पेड़ों पर बैठे पत्ते
फिर बजा उठे ताली
इतनी सारी-
चिड़ियों वाला पिंजड़ा डोल गया।
(दोपहर)
ड्यूटी की पाबंद,
देखकर अपनी भोर-घड़ी
दिन के ऑफ़िस की
सीढ़ी पर गोरी धूप चढ़ी
सूरज- 'बॉस'
शाम तक कुछ 'मैटर' बोल गया।
(शाम)
नभ के मेज़पोश पर
जब स्याही-सी बिखरी
शाम हुई
ऑफिस की सीढी
धूप-लली उतरी
तम की भीड़
धूप का स्वर्णिम कंगन मौल गया।
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 12:15 AM 6 comments
Monday, October 13, 2008
शाम
बँध गया
'रिबन'
-सूरज की लाली का।
हँसुली-सा
इंद्रघनुष
बिंदिया-सा सूर्य
मेघों की
माला में
ज्योतित वैदूर्य्य
सतरंगे वेशों में
बस गया
बदन
-फूलभरी डाली का।
कुंडल-से
झूम रहे
क्षितिजों पर वृंत
चूम रहा
अधरों को
मधुऋतु का कंत
तन-मन के देशों को
दे गया
गगन
-मौसम ख़ुशहाली का।
कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 1:33 AM 4 comments
Sunday, October 5, 2008
सुबह
जगा गई
नर्स-सी हवा।
देकर मधुगंधिनी दवा।
रोगी
दरवाज़ों की
बाजू में किरणों की घोंपकर सुई
सूरज-चिकित्सक ने
रख दी फिर
धुली हुई धूप की रुई
होने से
बच गई
चौखट विधवा।
जगा गई नर्स-सी हवा।
कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 10:26 PM 0 comments
Wednesday, October 1, 2008
पेड़ बबूलों के
उलझा था जब मेरा मन
चला गया था आकर यौवन
मुझको बिना बताए
ज्यों अनपढ़ी प्रेम की पाती
किसी नायिका के हाथों से
आँधी में उड़ जाए।
चलते रहे साँस के सँग-सँग
पेड़ बबूलों के
पड़े रहे अपने-अपने घर
गजरे फूलों के
कई गुत्थियाँ सुलझाने में
उलझा था जब मेरा मन
कई सुअवसर मेरे होते-होते हुए पराए
जैसे नई प्रेमिका कोई
प्रेमी के घर आते-आते
गलियों में मुड़ जाए।
झुकी-कमर की लाठी की भी
कमर झुकी ऐसी
अपने घर में घूम रही है
बनकर परदेसी
दुख-दर्दों को समझाने में
उलझा था जब मेरा मन
कई सफलताओं के घर से पाँव लौटकर आए
जैसे कोई तीर्थयात्री
संगम पर कुछ दिन रहकर भी
लौटे बिना नहाए।
कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 1:52 AM 5 comments
Wednesday, June 18, 2008
अँधेरी खाइयों के बीच
कि जैसे सोख़्ता हो।
जनम से मृत्यु तक की
यह सड़क लंबी
भरी है धूल से ही
यहाँ हर साँस की दुलहिन
बिंधी है शूल से ही
अँधेरी खाइयों के बीच
अपनी ज़िंदगी ऐसी
कि ज्यों ख़त लापता हो।
हमारा हर दिवस रोटी
जिसे भूखे क्षणों ने
खा लिया है
हमारी रात है थिगड़ी
जिसे बूढ़ी अमावस ने सिया है
घनी अमराइयों के बीच
अपनी ज़िंदगी,
जैसे कि पतझर की लता हो।
हमारी उम्र है स्वेटर
जिसे दुख की
सलाई ने बुना है
हमारा दर्द है धागा
जिसे हर प्रीतिबाला ने चुना है
कई शहनाइयों के बीच
अपनी ज़िंदगी
जैसे अभागिन की चिता हो।
डॉ० कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 1:34 AM 8 comments
Friday, April 11, 2008
दिन से लंबा ख़ालीपन
नींदें तो
रातों से लंबी
दिन से लंबा ख़ालीपन
अब क्या होगा मेरे मन?
मन की मीन
नयन की नौका
जब भी चाहे
बीती-अनबीती बातों में
डूबे-उतराए
निष्ठुर तट ने
तोड़ दिए हैं
बर्तुल लहरों के कंगन।
अब क्या होगा मेरे मन?
जितनी साँसें
रहन रखी थीं
भोले जीवन ने
एक-एक कर
छीनीं सारी
अश्रु-महाजन ने
लुटा हाट में
इस दुनिया की,
प्राणों का मधुमय कंचन।
अब क्या होगा मेरे मन।।
कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 1:33 AM 5 comments
Friday, March 14, 2008
चीज़े बोलती हैं
ध्यान देकर सुन सको तो,
तुम्हें मालूम यह होगा
कि चीजें बोलती हैं।
तुम्हारे कक्ष की तस्वीर
तुमसे कह रही है
बहुत दिन हो गए तुमने मुझे देखा नहीं है
तुम्हारे द्वार पर यूँ ही पड़े
मासूम ख़त पर
तुम्हारे चुंबनों की एक भी रेखा नहीं है
अगर तुम बंद पलकों में
सपन कुछ बुन सको तो
तुम्हें मालूम यह होगा
कि वे दृग खोलती हैं।
वो रामायण
कि जिसकी ज़िल्द पर जाले पुरे हैं
तुम्हें ममता-भरे स्वर में अभी भी टेरती है।
वो खूँटी पर टँगे
जर्जर पुराने कोट की छवि
तुम्हें अब भी बड़ी मीठी नज़र से हेरती है।
अगर तुम भाव की कलियाँ
हृदय से चुन सको तो
तुम्हें मालूम यह होगा
कि वे मधु घोलती हैं।
कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 2:36 AM 6 comments
Thursday, February 14, 2008
बीजगणित-सी शाम
बीजगणित-सी शाम
रेखाओं में खिंची हुई है
मेरी उम्र तमाम।
भोर-किरण ने दिया गुणनफल
दुख का, सुख का भाग
जोड़ दिए आहों में आँसू
घटा प्रीत का फाग
प्रश्नचिह्न ही मिले सदा से
मिला न पूर्ण विराम।
जन्म-मरण के 'ब्रैकिट' में
यह हुई ज़िंदगी क़ैद
ब्रैकिट के ही साथ खुल गए
इस जीवन के भेद
नफ़ी-नफ़ी सब जमा हो रहे
आँसू आठों याम।
आँसू, आह, अभावों की ही
ये रेखाएँ तीन
खींच रही हैं त्रिभुज ज़िंदगी का
होकर ग़मगीन
अब तक तो ऐसे बीती है
आगे जाने राम।
कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 10:53 PM 7 comments
Thursday, February 7, 2008
रात कहाँ बीते
साहस के होठ गए सूख
खेतों के कोश हुए रीते
जीवन की रात कहाँ बीते?
माटी के पाँव फटे
तरुवर के वस्त्र
छीन लिए सूखे ने
फ़सलों के शस्त्र
हाय भूख-डायन को
आज़ कौन जीते?
हड्डी की ठठरी में
उलझी है साँस
मुट्ठी भर भूख और
अंजलि भर प्यास
बीता हर दिन युग-सा
जीवन-विष पीते।
हृदयों के कार्यालय
आज हुए बंद
और न अब ड्यूटी का
तन ही पाबंद
साँसों की फा़इल पर
बँधे लाल फी़ते।
कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 12:40 AM 4 comments
पेटों में अन्न नहीं भूख
साहस के होठ गए सूख
खेतों के कोश हुए रीते
जीवन की रात कहाँ बीते?
माटी के पाँव फटे
तरुवर के वस्त्र
छीन लिए सूखे ने
फ़सलों के शस्त्र
हाय भूख-डायन को
आज़ कौन जीते?
हड्डी की ठठरी में
उलझी है साँस
मुट्ठी भर भूख और
अंजलि भर प्यास
बीता हर दिन युग-सा
जीवन-विष पीते।
हृदयों के कार्यालय
आज हुए बंद
और न अब ड्यूटी का
तन ही पाबंद
साँसों की फा़इल पर
बँधे लाल फी़ते।
कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 12:40 AM 5 comments
Tuesday, January 22, 2008
पिन बहुत सारे
मरना हो गया है
और जीने के लिये हैं
दिन बहुत सारे ।
इस
समय की मेज़ पर
रक्खी हुई
जिंदगी है 'पिन-कुशन' जैसी
दोस्ती का अर्थ
चुभना हो गया है
और चुभने के लिए हैं
पिन बहुत सारे।
निम्न-मध्यमवर्ग के
परिवार की
अल्पमासिक आय-सी
है जिंदगी
वेतनों का अर्थ
चुकना हो गया है
और चुकने के लिए हैं
ऋण बहुत सारे।
डॉ० कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 12:52 AM 6 comments
Thursday, January 17, 2008
मौत तो आनी है तो फिर मौत का क्यों डर रखूँ
जिंदगी आ, तेरे क़दमों पर मैं अपना सर रखूँ
जिसमें माँ और बाप की सेवा का शुभ संकल्प हो
चाहता हूँ मैं भी काँधे पर वही काँवर रखूँ
हाँ, मुझे उड़ना है लेकिन इसका मतलब यह नहीं
अपने सच्चे बाज़ुओं में इसके-उसके पर रखूँ
आज कैसे इम्तहाँ में उसने डाला है है मुझे
हुक्म यह देकर कि अपना धड़ रखूँ या सर रखूँ
कौन जाने कब बुलावा आए और जाना पड़े
सोचता हूँ हर घड़ी तैयार अब बिस्तर रखूँ
ऐसा कहना हो गया है मेरी आदत में शुमार
काम वो तो कर लिया है काम ये भी कर रख रखूँ
खेल भी चलता रहे और बात भी होती रहे
तुम सवालों को रखो मैं सामने उत्तर रखूँ
डॉ० कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 4:27 AM 11 comments
Wednesday, January 16, 2008
जिसे बनाया वृद्ध पिता के श्रमजल ने
दादी की हँसुली ने, माँ की पायल ने
उस सच्चे घर की कच्ची दीवारों पर
मेरी टाई टँगने से कतराती है।
माँ को और पिता को यह कच्चा घर भी
एक बड़ी अनुभूति, मुझे केवल घटना
यह अंतर ही संबंधों की गलियों में
ला देता है कोई निर्मम दुर्घटना
जिन्हें रँगा जलते दीपक के काजल ने
बूढ़ी गागर से छलके गंगाजल ने
उन दीवारों पर टँगने से पहले ही
पत्नी के कर से साड़ी गिर जाती है।
जब से युग की चकाचौंध के कुहरे ने
छीनी है आँगन से नित्य दिया-बाती
तबसे लिपे आँगनों से, दीवारों से
बंद नाक को सोंधी गंध नहीं आती
जिसे चिना था घुटनों तक की दलदल ने
सने-पुते-झीने ममता के आँचल ने
पुस्तक के पन्नों में पिची हुई राखी
उस घर को घर कहने में शरमाती है।
साड़ी-टाई बदलें, या ये घर बदलें
प्रश्नचिह्न नित और बड़ा होता जाता
कारण केवल यही, दिखावों से जुड़ हम
तोड़ रहे अनुभूति, भावना से नाता
जिन्हें दिया संगीत द्वार की साँकल ने
खाँसी के ठनके, चूड़ी की हलचल ने
उन संकेतों वाले भावुक घूँघट पर
दरवाज़े की ' कॉल वैल ' हँस जाती है।
डॉ० कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 1:02 AM 12 comments
Tuesday, August 14, 2007
आज़ादी की ६० वीं वर्षगाँठ पर आप सबको हार्दिक शुभकामनायें
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 9:37 AM 4 comments
Monday, August 6, 2007
कुछ काले कोट
ये उतरें रोज अखाड़े में
सिर से भी ऊँचे भाड़े में
पूरे हैं नंगे झाड़े में
ये कंठ लंगोट कचहरी के।
बैठे रहते मौनी साधे
गद्दी पै कानूनी पाधे
पूरे में से उनके आधे-
हैं आधे नोट कचहरी के।
छलनी कर देते आँतों को
अच्छे-अच्छों के दाँतों को
तोड़े सब रिश्ते-नातों को
ये हैं अखरोट कचहरी के।
डॉ० कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 6:07 AM 4 comments
Friday, July 20, 2007
चल ततइया !
काट तन मोटी व्यवस्था का
जो धकेले जा रही है
देश का पइया !
चल ततइया !
छोड़ मीठा गुड़
तू वहाँ तक उड़
है जहाँ पर क़ैद पेटों में रुपइया !
चल ततइया !!
चल बढ़ा सेना
थाम तुरही, छोड़कर मीठा पपइया !!
चल ततइया !!
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 1:27 AM 3 comments
Sunday, July 15, 2007
बेटियाँ
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 12:03 PM 7 comments
गज़ल...
डॉ० कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 11:58 AM 5 comments
मध्मवर्गीय पत्नी से
हमारे मध्यमवर्गीय परिवारों में एक शब्द बड़ा ही महत्वपूर्ण होता है और वह है 'कल' सारे काम उसके कल पर ही टाले जाते हैं बच्चों की फीस जमा करनी है तो यही कहा जायेगा 'कल चली जायेगी' आटा पिसाकर लाना है तो कहा जायेगा 'कल जरूर पिस जायेगा' इस प्रकार मध्यमवर्गीय परिवारों में इस 'कल' शब्द का बहुत महत्व है मध्यमवर्गीय व्यक्ति चाहे घर में कुछ भी न हो मगर घर से बाहर बड़ा टिप टॉप होकर निकलना चाहता है इस गीत का पहला पद इसी बात पर आधारित है। दूसरी बात मध्यमवर्गीय व्यक्ति की ज़िंदगी में ये है कि वह घर से पूरी तरह जुड़ा रहकर भी घर में नहीं रह पाता क्योंकि उसे घर की जिम्मेदारियों के लिये घर से बाहर रहना पड़ता है कमायेगा नहीं तो खिलायेगा क्या? वो घर से बाहर रहकर ही घर बना सकता है उसकी इसी विडम्बना पर ये गीत आधारित है-

कल समय की व्यस्तताओं से निकालूँगा समय कुछ
फिर भरुँगा खुद तुम्हारी माँग में सिन्दूर
मुझको माफ़ करना
आज तो इस वक्त काफी देर ऑफिस को हुई है
शर्ट के टूटे बटन भी टाँक देना
डॉ० कुअँर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 11:49 AM 4 comments
नव-गीत
जैसे कोई महानगर में ढूँढे नया मकान
नयन-गेह से निकले आँसू
कोई पार करे
बैठे हैं तूफान
साँसों के पीछे बैठे हैं
नये-नये खतरे
कई जेब-कतरे
तन-मन में रहती है हरदम
जैसे रहे पिता के घर पर विधवा सुता जवान
डॉ० कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 11:45 AM 0 comments
डॉ० कुँअर बेचैन जी का गज़ल संग्रहः कोई आवाज़ देता है
चाँदनी चार क़दम, धूप चली मीलो तक
प्यार का गाँव अजब गाँव है जिसमें अक्सर
ख़त्म होती ही नहीं दुख की गली मीलों तक
प्यार में कैसी थकन कहके ये घर से निकली
कृष्ण की खोज में वृषभानु-लली मीलों तक
घर से निकला तो चली साथ में बिटिया की हँसी
ख़ुशबुएँ देती रही नन्हीं कली मीलों तक
माँ के आँचल से जो लिपटी तो घुमड़कर बरसी
मेरी पलकों में जो इक पीर पली मीलों तक
मैं हुआ चुप तो कोई और उधर बोल उठा
बात यह है कि तेरी बात चली मीलों तक
हम तुम्हारे हैं 'कुँअर' उसने कहा था इक दिन
मन में घुलती रही मिसरी की डली मीलों तक
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 11:39 AM 5 comments
डॉ० कुँअर बेचैन जी की ओर से सभी को दीपावली की शुभकामनायें
डॉ० कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 11:31 AM 0 comments
एक गज़ल
तो अपनी ज़िदंगी को और भी बेहतर बना लेते
ये काग़ज़ पर बनी चिड़िया भले ही उड़ नही पाती
मगर तुम कुछ तो उसके बाज़ुओं में पर बना लेते
अलग रहते हुए भी सबसे इतना दूर क्यों होते
अगर दिल में उठी दीवार में हम दर बना लेते
हमारा दिल जो नाज़ुक फूल था सबने मसल डाला
ज़माना कह रहा है दिल को हम पत्थर बना लेते
हम इतनी करके मेहनत शहर में फुटपाथ पर सोये
ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते
'कुँअर' कुछ लोग हैं जो अपने धड़ पर सर नहीं रखते
अगर झुकना नहीं होता तो वो भी सर बना लेते
डॉ० कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 11:24 AM 4 comments
गज़ल
खुद को भी पहचाना कर
दुनिया से लडना है तो
अपनी ओर निशाना कर
या तो मुझसे आकर मिल
या मुझको दीवाना कर
बारिश में औरों पर भी
अपनी छतरी ताना कर
बाहर दिल की बात न ला
दिल को भी तहखाना कर
शहरों में हलचल ही रख
मत इनको वीराना कर
डॉ० कुअँर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 11:09 AM 8 comments