Thursday, October 23, 2008

वर्षा-दिनः एक ऑफ़िस

जलती-बुझती रही

दिवस के ऑफ़िस में बिज़ली।

वर्षा थी,

यों अपने घर से धूप नहीं निकली।


सुबह-सुबह आवारा बादल गोली दाग़ गया

सूरज का चपरासी डरकर

घर को भाग गया

गीले मेज़पोश वाली-

भू-मेज़ रही इकली।

वर्षा थी, यूँ अपने घर से धूप नहीं निकली।


आज न आई आशुलेखिका कोई किरण-परी

विहग-लिपिक ने

आज न खोली पंखों की छतरी

सी-सी करती पवन

पिच गई स्यात् कहीं उँगली।

वर्षा थी, यों अपने घर से धूप नहीं निकली।


ख़ाली पड़ी सड़क की फ़ाइल कोई शब्द नहीं

स्याही बहुत

किंतु कोई लेखक उपलब्ध नहीं

सिर्फ़ अकेलेपन की छाया

कुर्सी से उछली।

वर्षा थी, यों अपने घर से धूप नहीं निकली।
कुँअर बेचैन

Monday, October 20, 2008

गोरी धूप चढ़ी

(रात)
जाते-जाते दिवस,
रात की पुस्तक खोल गया।
रात कि जिस पर
सुबह-शाम की स्वर्णिम ज़िल्द चढ़ी
गगन-ज्योतिषी ने
तारों की भाषा ख़ूब पढ़ी
आया तिमिर,
शून्य के घट में स्याही घोल गया।

(सुबह)

देख भोर को
नभ-आनन पर छाई फिर लाली
पेड़ों पर बैठे पत्ते
फिर बजा उठे ताली
इतनी सारी-
चिड़ियों वाला पिंजड़ा डोल गया।

(दोपहर)
ड्यूटी की पाबंद,
देखकर अपनी भोर-घड़ी
दिन के ऑफ़िस की
सीढ़ी पर गोरी धूप चढ़ी
सूरज- 'बॉस'
शाम तक कुछ 'मैटर' बोल गया।

(शाम)
नभ के मेज़पोश पर
जब स्याही-सी बिखरी
शाम हुई
ऑफिस की सीढी
धूप-लली उतरी
तम की भीड़
धूप का स्वर्णिम कंगन मौल गया।
कुँअर बेचैन

Monday, October 13, 2008

शाम

संध्या के केशों में
बँध गया
'रिबन'
-सूरज की लाली का।

हँसुली-सा
इंद्रघनुष
बिंदिया-सा सूर्य
मेघों की
माला में
ज्योतित वैदूर्य्य
सतरंगे वेशों में
बस गया
बदन

-फूलभरी डाली का।

कुंडल-से
झूम रहे
क्षितिजों पर वृंत
चूम रहा
अधरों को
मधुऋतु का कंत
तन-मन के देशों को
दे गया
गगन
-मौसम ख़ुशहाली का।

कुँअर बेचैन

Sunday, October 5, 2008

सुबह

सोई खिड़कियों को
जगा गई
नर्स-सी हवा।
देकर मधुगंधिनी दवा।

रोगी
दरवाज़ों की
बाजू में किरणों की घोंपकर सुई
सूरज-चिकित्सक ने
रख दी फिर
धुली हुई धूप की रुई

होने से
बच गई
चौखट विधवा।
जगा गई नर्स-सी हवा।

कुँअर बेचैन

Wednesday, October 1, 2008

पेड़ बबूलों के

संघर्षों से बतियाने में

उलझा था जब मेरा मन

चला गया था आकर यौवन

मुझको बिना बताए

ज्यों अनपढ़ी प्रेम की पाती

किसी नायिका के हाथों से

आँधी में उड़ जाए।


चलते रहे साँस के सँग-सँग


पेड़ बबूलों के

पड़े रहे अपने-अपने घर

गजरे फूलों के

कई गुत्थियाँ सुलझाने में


उलझा था जब मेरा मन

कई सुअवसर मेरे होते-होते हुए पराए

जैसे नई प्रेमिका कोई

प्रेमी के घर आते-आते

गलियों में मुड़ जाए।


झुकी-कमर की लाठी की भी


कमर झुकी ऐसी

अपने घर में घूम रही है

बनकर परदेसी

दुख-दर्दों को समझाने में

उलझा था जब मेरा मन

कई सफलताओं के घर से पाँव लौटकर आए

जैसे कोई तीर्थयात्री

संगम पर कुछ दिन रहकर भी

लौटे बिना नहाए।

कुँअर बेचैन