Tuesday, August 14, 2007
आज़ादी की ६० वीं वर्षगाँठ पर आप सबको हार्दिक शुभकामनायें
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 9:37 AM 4 comments
Monday, August 6, 2007
कुछ काले कोट
ये उतरें रोज अखाड़े में
सिर से भी ऊँचे भाड़े में
पूरे हैं नंगे झाड़े में
ये कंठ लंगोट कचहरी के।
बैठे रहते मौनी साधे
गद्दी पै कानूनी पाधे
पूरे में से उनके आधे-
हैं आधे नोट कचहरी के।
छलनी कर देते आँतों को
अच्छे-अच्छों के दाँतों को
तोड़े सब रिश्ते-नातों को
ये हैं अखरोट कचहरी के।
डॉ० कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 6:07 AM 4 comments
Friday, July 20, 2007
चल ततइया !
काट तन मोटी व्यवस्था का
जो धकेले जा रही है
देश का पइया !
चल ततइया !
छोड़ मीठा गुड़
तू वहाँ तक उड़
है जहाँ पर क़ैद पेटों में रुपइया !
चल ततइया !!
चल बढ़ा सेना
थाम तुरही, छोड़कर मीठा पपइया !!
चल ततइया !!
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 1:27 AM 3 comments
Sunday, July 15, 2007
बेटियाँ
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 12:03 PM 7 comments
गज़ल...
डॉ० कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 11:58 AM 5 comments
मध्मवर्गीय पत्नी से
हमारे मध्यमवर्गीय परिवारों में एक शब्द बड़ा ही महत्वपूर्ण होता है और वह है 'कल' सारे काम उसके कल पर ही टाले जाते हैं बच्चों की फीस जमा करनी है तो यही कहा जायेगा 'कल चली जायेगी' आटा पिसाकर लाना है तो कहा जायेगा 'कल जरूर पिस जायेगा' इस प्रकार मध्यमवर्गीय परिवारों में इस 'कल' शब्द का बहुत महत्व है मध्यमवर्गीय व्यक्ति चाहे घर में कुछ भी न हो मगर घर से बाहर बड़ा टिप टॉप होकर निकलना चाहता है इस गीत का पहला पद इसी बात पर आधारित है। दूसरी बात मध्यमवर्गीय व्यक्ति की ज़िंदगी में ये है कि वह घर से पूरी तरह जुड़ा रहकर भी घर में नहीं रह पाता क्योंकि उसे घर की जिम्मेदारियों के लिये घर से बाहर रहना पड़ता है कमायेगा नहीं तो खिलायेगा क्या? वो घर से बाहर रहकर ही घर बना सकता है उसकी इसी विडम्बना पर ये गीत आधारित है-

कल समय की व्यस्तताओं से निकालूँगा समय कुछ
फिर भरुँगा खुद तुम्हारी माँग में सिन्दूर
मुझको माफ़ करना
आज तो इस वक्त काफी देर ऑफिस को हुई है
शर्ट के टूटे बटन भी टाँक देना
डॉ० कुअँर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 11:49 AM 4 comments
नव-गीत
जैसे कोई महानगर में ढूँढे नया मकान
नयन-गेह से निकले आँसू
कोई पार करे
बैठे हैं तूफान
साँसों के पीछे बैठे हैं
नये-नये खतरे
कई जेब-कतरे
तन-मन में रहती है हरदम
जैसे रहे पिता के घर पर विधवा सुता जवान
डॉ० कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 11:45 AM 0 comments
डॉ० कुँअर बेचैन जी का गज़ल संग्रहः कोई आवाज़ देता है
चाँदनी चार क़दम, धूप चली मीलो तक
प्यार का गाँव अजब गाँव है जिसमें अक्सर
ख़त्म होती ही नहीं दुख की गली मीलों तक
प्यार में कैसी थकन कहके ये घर से निकली
कृष्ण की खोज में वृषभानु-लली मीलों तक
घर से निकला तो चली साथ में बिटिया की हँसी
ख़ुशबुएँ देती रही नन्हीं कली मीलों तक
माँ के आँचल से जो लिपटी तो घुमड़कर बरसी
मेरी पलकों में जो इक पीर पली मीलों तक
मैं हुआ चुप तो कोई और उधर बोल उठा
बात यह है कि तेरी बात चली मीलों तक
हम तुम्हारे हैं 'कुँअर' उसने कहा था इक दिन
मन में घुलती रही मिसरी की डली मीलों तक
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 11:39 AM 5 comments
डॉ० कुँअर बेचैन जी की ओर से सभी को दीपावली की शुभकामनायें
डॉ० कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 11:31 AM 0 comments
एक गज़ल
तो अपनी ज़िदंगी को और भी बेहतर बना लेते
ये काग़ज़ पर बनी चिड़िया भले ही उड़ नही पाती
मगर तुम कुछ तो उसके बाज़ुओं में पर बना लेते
अलग रहते हुए भी सबसे इतना दूर क्यों होते
अगर दिल में उठी दीवार में हम दर बना लेते
हमारा दिल जो नाज़ुक फूल था सबने मसल डाला
ज़माना कह रहा है दिल को हम पत्थर बना लेते
हम इतनी करके मेहनत शहर में फुटपाथ पर सोये
ये मेहनत गाँव में करते तो अपना घर बना लेते
'कुँअर' कुछ लोग हैं जो अपने धड़ पर सर नहीं रखते
अगर झुकना नहीं होता तो वो भी सर बना लेते
डॉ० कुँअर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 11:24 AM 4 comments
गज़ल
खुद को भी पहचाना कर
दुनिया से लडना है तो
अपनी ओर निशाना कर
या तो मुझसे आकर मिल
या मुझको दीवाना कर
बारिश में औरों पर भी
अपनी छतरी ताना कर
बाहर दिल की बात न ला
दिल को भी तहखाना कर
शहरों में हलचल ही रख
मत इनको वीराना कर
डॉ० कुअँर बेचैन
Posted by डॉ० कुअँर बेचैन at 11:09 AM 8 comments