दरवाज़े तोड़-तोड़ कर
घुस न जाएँ आँधियाँ मकान में,
आँगन की अल्पना सँभालिए।
आई कब आँधियाँ यहाँ
बेमौसम शीतकाल में
झागदार मेघ उग रहे
नर्म धूप के उबाल में
छत से फिर कूदे हैं अँधियारे
चंद्रमुखी कल्पना सँभालिए।
आँगन से कक्ष में चली
शोरमुखी एक खलबली
उपवन-सी आस्था हुई
पहले से और जंगली
दीवारों पर टँगी हुई
पंखकटी प्रार्थना सँभालिए।
घुस न जाएँ आँधियाँ मकान में,
आँगन की अल्पना सँभालिए।
आई कब आँधियाँ यहाँ
बेमौसम शीतकाल में
झागदार मेघ उग रहे
नर्म धूप के उबाल में
छत से फिर कूदे हैं अँधियारे
चंद्रमुखी कल्पना सँभालिए।
आँगन से कक्ष में चली
शोरमुखी एक खलबली
उपवन-सी आस्था हुई
पहले से और जंगली
दीवारों पर टँगी हुई
पंखकटी प्रार्थना सँभालिए।
कुँअर बेचैन
3 comments:
आँगन से कक्ष में चली
शोरमुखी एक खलबली
उपवन-सी आस्था हुई
पहले से और जंगली
दीवारों पर टँगी हुई
पंखकटी प्रार्थना सँभालिए।
bahut sunder bhaaw hai
आपको सुना भी है. पढ़ा भी था. पर इतना ज्यादा नहीं. आज काफी तसल्ली हुई. इतना ज्यादा पढ़कर आपको...
आपको पढ़ना ,हमारा सौभाग्य है.
कविता की प्रशंशा को शब्द नही मेरे पास.बहुत बहुत आभार.
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