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लोहे ने कब कहा
कि तुम गाना छोड़ो
तुम खुद ही जीवन की लय को भूल गए।
वह प्रहार सहकर भी
गाया करता है
सधी हुई लय में,
झंकारों के स्वर में
तुम प्रहार को
सहे बिना भी चिल्लाए
किया टूटने का अभिनय
दुनिया भर में
लोहे ने कब कहा
कि तुम रिश्ते तोड़ो
तुम्हीं टूटने तक धागों पर झूल गए।
हुई धूप में गर्म
शिशिर में शीतल भी
है संवेदनशीला
लोहे ही जड़ता
पर तुम जान-बूझ,
उन कमरों में बैठे
जिन पर ऋतु का
कोई असर नहीं पड़ता
लोहे ने कब कहा
इड़ा के सँग दौड़ो
यह तुम थे जो श्रद्धा के प्रतिकूल गए।
कि तुम गाना छोड़ो
तुम खुद ही जीवन की लय को भूल गए।
वह प्रहार सहकर भी
गाया करता है
सधी हुई लय में,
झंकारों के स्वर में
तुम प्रहार को
सहे बिना भी चिल्लाए
किया टूटने का अभिनय
दुनिया भर में
लोहे ने कब कहा
कि तुम रिश्ते तोड़ो
तुम्हीं टूटने तक धागों पर झूल गए।
हुई धूप में गर्म
शिशिर में शीतल भी
है संवेदनशीला
लोहे ही जड़ता
पर तुम जान-बूझ,
उन कमरों में बैठे
जिन पर ऋतु का
कोई असर नहीं पड़ता
लोहे ने कब कहा
इड़ा के सँग दौड़ो
यह तुम थे जो श्रद्धा के प्रतिकूल गए।
Dr.kunwar Bechain
9 comments:
मन आनन्दित हो गया. डॉक्टर साहब को प्रणाम!!
सर बहुत ही अच्छी कविता लगी । ये लाइनें खासकर-
हुई धूप में गर्म
शिशिर में शीतल भी
है संवेदनशीला
लोहे ही जड़ता
पर तुम जान-बूझ,
उन कमरों में बैठे
जिन पर ऋतु का
कोई असर नहीं पड़ता
लोहे ने कब कहा
कि तुम रिश्ते तोड़ो
तुम्हीं टूटने तक धागों पर झूल गए।
वाह !!!!
आपको और आपकी लेखनी को नमन...शब्द और भाव आपकी लेखनी को छूकर सार्थक होते हैं....
कुअर जी को नमस्कार, लोहे को कविता में पहले जब पढा था तब भारती जी ने मेरे रक्तविंदवों पर ठंडा लोहा रखवा दिया था। वो ठंडा लोहा आज उतर गया, क्यों कि लोह ने कब कहा कि तुम मत गाओ..। साधु
हुई धूप में गर्म
शिशिर में शीतल भी
है संवेदनशीला
लोहे ही जड़ता
पर तुम जान-बूझ,
उन कमरों में बैठे
जिन पर ऋतु का
कोई असर नहीं पड़ता
bahut achhi lagi ye panktiyan bahut badhai
अच्छी रचना पढ़ने को मिली ... आभार
बहुत बढ़िया। बहुत सही।
घुघूती बासूती
बहुत ही अच्छी कविता लगी ..
डा. साहब.
"किया टूटने का अभिनय",
"उन कमरों में बैठे
जिन पर ऋतु का
कोई असर नहीं पड़ता"
सुन्दर !
कामायनी की तरफ जो संकेत वह भी सुन्दर !
सादर
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