Monday, October 25, 2010

अब आग के लिबास को ज्यादा न दाबिए...

अब आग के लिबास को ज्यादा न दाबिए।
सुलगी हुई कपास को ज्यादा न दाबिए।


ऐसा न हो कि उँगलियाँ घायल पड़ी मिलें
चटके हुए गिलास को ज्यादा न दाबिए।

चुभकर कहीं बना ही न दे घाव पाँव में
पैरों तले की घास को ज्यादा न दाबिए।

मुमकिन है खून आपके दामन पे जा लगे
ज़ख़्मों के आस पास यों ज्यादा न दाबिए।

पीने लगे न खून भी आँसू के साथ-साथ
यों आदमी की प्यास को ज्यादा न दाबिए।

13 comments:

Randhir Singh Suman said...

nice

अरुण चन्द्र रॉय said...

सर आपकी ग़ज़ल को तो बचपन से पढता आ रहा हूँ.. ब्लॉग पर भी इतनी सुदर ग़ज़ल पढने को मिलेंगी सोचा ना था.. बहुत दिनों बाद नई पोस्ट आयी है और सुबह सुबह दिन बन गया... वैसे तो सभी शेर बहुत अच्छे हैं लेकिन जो दो शेर दिल के भीतर बस गए वो हैं...
" चुभकर कहीं बना ही न दे घाव पाँव में
पैरों तले की घास को ज्यादा न दाबिए।"
और
"पीने लगे न खून भी आँसू के साथ-साथ
यों आदमी की प्यास को ज्यादा न दाबिए।"...
इन दोनों शेर में बहुत गहराई है.. विम्ब के प्रयोग नए हैं.. घास जब पाँव में घाव बना दे तो उस समय घास कितना दबी होगी.. दबाई गयी होगी... बहुत सुंदर.. इसी तरह प्यास भी है..
सादर

अशोक कुमार मिश्र said...

ह्रदय को छू जाने वाली गज़ल .......
धन्यवाद....
http://nithallekimazlis.blogspot.com/

Ashkara Farooqui said...

आदाब !
आपसे मुखातिब होने की जुर्रत कर ही ली आज.
तारीफ़ करना आफताब को आईने के मुक़ाबिल लाना है.

Ashkara Farooqui said...

आदाब !
आपसे मुखातिब होने की जुर्रत कर ही ली आज.
तारीफ़ करना आफताब को आईने के मुक़ाबिल लाना है.

Ashkara Farooqui said...

आदाब !
आपसे मुखातिब होने की जुर्रत कर ही ली आज.
तारीफ़ करना आफताब को आईने के मुक़ाबिल लाना है.

तिलक राज कपूर said...

आपके कृतित्‍व का प्रशंसक रहा हूँ बचपन से जब पहली बार मुरैना में आपको सुना था।
चुभकर कहीं बना ही न दे घाव पाँव में
पैरों तले की घास को ज्यादा न दाबिए।
में छुपी चेतावनी सबसे आगे निकल गयी।
चौथे शेर की दूसरी पंक्ति में टंकण त्रुटि रह गयी है:
मुमकिन है खून आपके दामन पे जा लगे
ज़ख़्मों के आस पास यों (को) ज्यादा न दाबिए।

mridula pradhan said...

wah.bemisaal.

mridula pradhan said...

bahut bhawpurn hai.

KESHVENDRA IAS said...

डॉ साहब को ब्लॉग को पा कर ओर इन गज़लों-नवगीतों को पढ़ मन गदगद हो उठा. एक पाठक की ओर से उन्हें ढेर सारी शुभकामनाएँ.

Rakesh Kumar said...

समीरलाल 'समीर' जी के ब्लोग से आपके ब्लॉग पर पहली बार आना हुआ.कमाल की विस्फोटक अभिव्यक्ति है आपकी.अब इसके आगे शब्द ही नहीं हैं मेरे पास
'पीने लगे न खून भी आँसू के साथ-साथ
यों आदमी की प्यास को ज्यादा न दाबिए।'

मेरे ब्लॉग 'मनसा वाचा कर्मणा' पर आपका स्वागत है.

Ajay Soni said...

Wah Wah Wah


Ajay Soni
Secretary
Maihar Vikas Manch, Maihar

रमेश तेलंग said...

बहुत सुन्दर. डॉ. कुंवर बेचैन की एक बहुत पुराणी ग़ज़ल रेडियो पर सुनी थी: अपनी सियाह पीठ छिपता है आइना/सबको हमारे दाग दिखता है आइना. क्या इस ग़ज़ल को पूरा का पूरा इस ब्लॉग पर डालने की कृपा कर सकेंगी. सादर-रमेश तैलंग